दृश्य,दर्शक,द्रष्टा
June 5, 2025🙏जोश से भरे किंतु होश से खाली जान गंवाने वाले दर्शकों का मनोवैज्ञानिक-दार्शनिक विश्लेषण 🙏
संवाद
'दृश्य,दर्शक,द्रष्टा'
बेंगलुरु में आरसीबी टीम की आईपीएल में जीत के बाद चिन्नास्वामी स्टेडियम में जुटी भीड़ और उसके परिणाम स्वरूप भगदड़ में हुई मौत ने भीड़ के मनोविज्ञान पर चिंतन करने को मुझे मजबूर कर दिया। बेटा बेंगलुरु में है और सायंकाल 6:00 बजे टीवी पर भीड़ और मौत की खबर देखकर तुरंत उससे संपर्क किया तो जान में जान आई कि वह ऑफिस में ही फंसा हुआ है। भारी भीड़ को देखते हुए न तो मेट्रो से जा सकता है और न प्राइवेट टैक्सी आसानी से उपलब्ध हो सकती है।
मौत के बाद भी जीत के जश्न को मनाते हुए देखकर इस संवेदनहीन दुनिया से एक तरफ विरक्ति का भाव उदित हो रहा है किंतु दूसरी तरफ ताली बजाने के लिए जान की बाजी लगाने वाले को देखकर मुझे क्रोध- मिश्रित-आश्चर्य भी हो रहा है। 'बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना' कहावत का अर्थ अभी ज्यादा समझ में आ रहा है। न अपना देश जीता है,न अपना राज्य जीता है ; जीत हुई है पैसों के आधार पर बनाई गई एक टीम का ; जिसके बारे में कहा जा सकता है-'कहीं का ईंट,कहीं का रोड़ा,भानुमति ने कुनबा जोड़ा'।
स्कूल में पढ़ता था कि.....
'जो भरा नहीं है भावों से बहती जिसमें रसधार नहीं,
हृदय नहीं वह पत्थर है जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।'
स्वदेश हेतु भावनात्मक लगाव स्वाभाविक है किंतु प्राइवेट टीम से भी ऐसा भावनात्मक लगाव?
किंतु यहां तो प्रचार से किसी टीम से व्यक्ति अपने आप को जोड़ लेता है और फिर उसके लिए पागल होने लगता है। खेल के प्रति प्यार मुझे भी था, क्रिकेट की दीवानगी में 10 साल गुजारा। किंतु खिलाड़ी के रूप में; ताली बजाने वाले दर्शक के रूप में नहीं।
दर्शन विषय से लगाव होने के कारण दर्शक और द्रष्टा ये दो शब्द मुझे बहुत आकर्षित करते हैं और जीवन को दिशा देने वाले मालूम होते हैं। 'दर्शक' वह है जो सिर्फ दृश्य पर नजर रखता है। मैच हुआ या सिनेमा हुआ या कोई सेलिब्रिटी का शो हुआ; इन दृश्यों को देखने के लिए दर्शक पागल हो जाता है। लेकिन 'द्रष्टा' वह है जो दृश्य के साथ स्वयं पर भी नजर रखता है। द्रष्टा दृश्य का गुलाम नहीं बनता बल्कि स्वयं का मालिक बना रहता है।
भारतीय संस्कृति में जीवन को एक खेल माना गया है। अतः जीवन को अच्छी प्रकार से खेलना चाहिए। राम और कृष्ण के लिए जीवन एक खेल से ज्यादा नहीं था,इसलिए उनके जीवन चरित्र को हम रामलीला और कृष्णलीला कहते हैं। जिस किसी भी क्षेत्र में मन लगे,उसमें जमकर खेलो। जिस प्रकार अभिनेता अपनी कला में डूबता है और खिलाड़ी अपने खेल में डूबता है,उसी प्रकार से अपनी रुचि के क्षेत्र में किसी को भी डूबना चाहिए क्योंकि
'इश्क की गहराइयां तो डूब कर ही पाओगे
जरा जज्बों के दरिया में उतर जाया करो।'
लेकिन आज की युवा पीढ़ी दर्शक बन गई है। खेलता कोई और है और वह ताली बजाती है,नाचता कोई और है और वह बैठे-बैठे देखती है। किसी का फैंस या प्रशंसक होना बुरा नहीं है किंतु उद्देश्य प्रेरणा प्राप्त करने का होना चाहिए न कि सिर्फ देखने में जिंदगी गंवाने का।
खिलाड़ी हो या अभिनेता या राजनेता, ये सभी दृश्य हैं ; इन सभी के प्राण दर्शक में होते हैं। जितना ज्यादा दर्शक जुटते हैं , उतना ज्यादा वे लोकप्रिय और महान बन जाते हैं। दर्शक अपना समय,धन और सब कुछ लूटाकर दूसरे का जेब भरते हैं और उन्हें इंसान से भगवान बनाते हैं। प्रचारतंत्र ने ऐसी मानसिकता बनाई है कि दर्शक स्वयं साधन बन जाते हैं। बाजारतंत्र ने उस पर से खेलों में भी ऑनलाइन गैंबलिंग का खेल शुरू कर दिया जिसका प्रचार क्रिकेट के भगवान भी कर रहे हैं। परिणाम में अवसाद और आत्महत्या के मामले बढ़ते जा रहे हैं।
परमात्मा ने ऊर्जा दिया है खेलने के लिए, नाचने के लिए, अपने इच्छित क्षेत्र में रचनात्मकता बढ़ाने के लिए ; किंतु दर्शक इस ऊर्जा को सही दिशा नहीं देता। वह तो दृश्य को देखने में रह जाता है। यदि ऊर्जा को सही दिशा नहीं मिले तो वह रुकी हुई ऊर्जा सड़ जाती है, stagnant energy बन जाती है। परिणामस्वरूप नशाखोरी और कामुकता ज्यादा बढ़ जाती है।
अभिनेता विनोद खन्ना ने ओशो से कहा कि मेरी डायरी पर कुछ लिख दें। ओशो ने लिखा-'जीवन ऐसे जियो जैसे अभिनय हो, अभिनय ऐसे करो जैसे जीवन हो।' संदेश स्पष्ट है कि किसी भी काम में यदि तुम स्वयं उतरते हो और खून-पसीना बहाते हो तो वह काम तुम्हारे लिए पूजा बन जाता है और परमात्मा से मिलवा देता है।
किंतु हम ऐसे जमाने में पहुंच गए हैं कि परमात्मा की पूजा करने के लिए भी पंडित जी को पैसे देकर रख लेते हैं। इस प्रकार की पूजा से न तो भगवान प्रसन्न हो सकता है और न भक्त का जन्म हो सकता है।
हर व्यक्ति स्वयं में साध्य है। हर जीवन महत्वपूर्ण है और जीवन के किसी भी रास्ते से परमात्मा को प्राप्त किया जा सकता है किंतु चलने का कष्ट तो स्वयं को उठाना पड़ेगा। दर्शक अपने आप को साधन बनाकर इन कष्टों को उठाना नहीं चाहता। इस कारण से वह असली आनंद से वंचित हो जाता है।
कृष्ण ने स्वयं गायें चराईं, स्वयं ही बांसुरी बजाई,गोपियों के साथ नाचे, ग्वालबालों के साथ खूब खेले और महाभारत में लड़े भी ; उसके बावजूद द्रष्टा बने रहे। अर्थात् जीवन रूपी खेल का मजा भी लिया और उसका तनाव भी अपने सर पर चढ़ने नहीं दिया।
आज दर्शक खेल का ठीक से मजा भी नहीं लेते हैं और सारा तनाव भी झेलते हैं। फिर जीत के जश्न में अपनी जान भी गंवाते हैं और हार के गम में आत्महत्या भी करते हैं। क्योंकि उन्हें पता ही नहीं चल रहा कि प्रचारतंत्र और बाजारतंत्र किस प्रकार का खेला उनके साथ खेल रहा है।
ऐसे समय में ऋग्वेद का सूत्र जो भीड़ को सही राह बता सकती है, वह यह है कि जीवन रूपी वृक्ष पर दो पंक्षी बैठे हुए हैं। एक पंक्षी अपने आपको कर्ता और भोक्ता मानकर सुख-दुख में डूबता उतराता है, जबकि दूसरा पंक्षी साक्षी भाव से देखता हुआ सुख-दुख दोनों के परे आनंदमग्न रहता है-
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति॥[v] ऋ01.164.20
🙏मृतात्माओं के प्रति श्रद्धांजलि🙏
'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹