😭प्रतिदिन भारत में 90 बलात्कार😭


संवाद


'संस्कृति-प्रकृति-विकृति'


आईसीयू में दुष्कर्मवाली अलवर की घटना पतन की पराकाष्ठा है।यह भयावह उदाहरण समाज के लिए खतरे की घंटी है। जहां जीवन और मौत के बीच रोगी झूल रहा हो, वहां सेवा करने वाले में काम भाव का उदय होना ही मानव प्रकृति के विपरीत है‌। मरीज के साथ अचेतावस्था में काम संबंध बनाना तो बहुत बड़ी विकृति है।  बलात्कार और दुराचार की बढ़ती घटनाओं ने पहले से ही समाज को  शर्मसार कर रखा है , अलवर की इस घटना ने तो स्तब्ध कर दिया।


               राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी ने 'भारत भारती' कविता में लिखा है-


'हम कौन थे, क्या हो गये हैं, और क्या होंगे अभी


आओ विचारें आज मिल कर, यह समस्याएं सभी।'


               'संस्कृति' से 'विकृति' तक का यह सफर 'प्रकृति' को सम्यक रूप से न समझने का नतीजा है। किसी भी कीमत पर मुनाफा कमाने की बाजारवादी दृष्टि ने अश्लील साइट्स के द्वारा काम रूपी प्रकृति को विकृति के चरम पर पहुंचा दिया है।


              कठोर से कठोरतम सजा तो इस कामविकृति का ऊपरी इलाज है, असली इलाज तो समाज की मर रही चेतना को स्वस्थ करना ही है।क्योंकि मनुष्य का जन्म काम संबंध से ही होता है इसलिए काम को हमारी संस्कृति ने 'कामदेव' के रूप में प्रतिष्ठा दी। विवाह संस्कार इसका आधार बना। रोम-रोम में समाया यह काम कहीं नियंत्रित रहता है तो कहीं अनियंत्रित हो जाता है। इसलिए समाज में आठ प्रकार के विवाह भी प्रचलित हो गए। इसमें से कुछ समाज द्वारा मान्यता प्राप्त थे-जैसे दैव,ब्रह्म,प्रजापत्य और आर्ष विवाह ; कुछ को समाज ने स्वीकृति नहीं दी-जैसे गंधर्व,असुर,राक्षस,पैशाच विवाह को। यह काम की प्रकृति के संबंध में समाज की समझ की प्रवृत्ति थी।


              आध्यात्मिक चेतना में यौन संबंध प्रजनन से जुड़ा हुआ था। विज्ञान के आविष्कारों ने भौतिकतावादी चेतना में इसे सिर्फ कामकेंद्रित बना दिया। चार्वाक दर्शन ने 'खाओ,पियो,मौज करो' की उद्घोषणा द्वारा इसे सैद्धांतिक आधार दे दिया।यहां से प्रकृति विकृति की ओर बढ़ने लगी। बाजारवाद ने अश्लीलता के प्रचार-प्रसार के द्वारा इसे और बढ़ा दिया।


            मुक्त यौन संबंध की पश्चिमी प्रवृत्ति ने भारतीय समाज को भी अपने प्रभाव में ले लिया।प्रकृति से दूर हो रही उपभोगवादी जीवन शैली ने साहित्य,कला और संस्कृति को भी काम केंद्रित बना दिया। फिल्में,साहित्य और पर्व-त्यौहार रुचियों के परिष्कार की जगह व्यापार का साधन बनकर फैशनपरस्ती और प्रदर्शन को बढ़ावा देने वाले बन गए।मोबाइल ने तो अश्लीलता को बाल-मनों तक पहुंचा दिया जिससे सारे नैतिक मूल्य धराशाई हो गए-


'खिलौनों के बदले में बारूद दी


बच्चों में अब गुलफिशानी कहां?


जलाकर शमा  पूछते  हो  आप


पतंगों की अब जिंदगानी कहां??'


              मन की अद्भुत शक्ति का सदुपयोग कर जो मानव 'मंगल' तक पहुंच गया वही मानव मन के दुरुपयोग के कारण अनेक प्रकार के व्यसन-वासनाओं का शिकार हो गया और 'अमंगल' के गर्त में गिर गया।संस्कृत के ऋषि कहते हैं-


आहार निद्रा भय मैथुनं च


समानमेतत् पशुभिर्नराणाम् । 


धर्मो हि तेषामधिको विशेषो


धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ॥ 


अर्थात् आहार, निद्रा, भय और मैथुन – ये मनुष्य और पशु में समान हैं। मानव में विशेष केवल धर्म है, अर्थात् बिना धर्म के व्यक्ति पशुतुल्य है।


            वह धर्म जो मानव को उसकी प्रकृति का ज्ञान देकर उसे संस्कृति की ओर उन्मुख करता है, वह धर्म आज अंधविश्वास बनकर प्रकृति को विकृति की ओर ले जा रहा है। विज्ञान की शक्ति तो मानव को मिल गई किंतु धर्म का विवेक नहीं मिला। एक समय था कि धर्म का विवेक यह सिखाता था कि


"मातृवत् परदारेषु , परद्रव्येषु लोष्ठवत्,


आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति स पंडितः।"


अर्थात् जो व्यक्ति दूसरों की स्त्रियों को अपनी माता के समान, दूसरों के धन को मिट्टी के ढेले के समान, और सभी प्राणियों को अपने समान देखता है, वही पंडित (ज्ञानी) है।"


         मंत्रयुग में दिया गया यह उपदेश आज के यंत्रयुग में एकदम विपरीत हो गया। पशु भी उतना नहीं गिर सकता जितना आज मानव गिरता जा रहा है। पहलगाम में जैसी नृशंसता आतंकियों ने दिखाई और कामुकता में जैसी वीभत्स घटनाएं सुनने को मिलने लगी हैं ; क्या उसे पशुता कहना पशुओं का अपमान नहीं है?


             जब तक अच्छी शिक्षा को जन-जन तक उपलब्ध कराकर प्रकृति की समझ से संस्कृति विकसित नहीं की जाती तब तक विकृति की घटनाएं समाज को शर्मसार करती रहेगी।


'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹