पिता और परमपिता से एक प्रश्न
June 14, 2025🙏'फादर्स डे' पर विमान हादसे में अपनों को खोकर उनकी याद में जीने के लिए विवश पिताओं को समर्पित लेख 🙏
संवाद
'पिता और परमपिता से एक प्रश्न'
विमान हादसे के बाद मन डूबता जा रहा है। ऐसे में पिता के प्रति कैसा भाव बनेगा,जबकि परमपिता के प्रति ही भाव अस्तव्यस्त हो गया है।बांसवाड़ा के डॉक्टर दंपति और तीन बच्चों की खुशनुमा तस्वीर जो विमान उड़ने के समय की है, इसको देखकर परमपिता की ओर आंखें शिकायती लहजे में उठ गई और बोले बिना न रहा गया...... हे परमपिता! यह पिता 'प्रतीक' तो अपने परिवार को अपने पास लेने आया था, तूने उसे परिवार के साथ ही अपने पास बुला लिया! तू आखिर इतना निर्दयी कैसे हो सकता है?
क्योंकि पिता जिस प्रकार अपने बच्चों की रक्षा करता है,उसी प्रकार परमपिता सभी की रक्षा करता है।
तभी मुझे अपने बाबूजी की याद आई जो भारतीय सेना में लड़ते हुए कई युद्धों में अपने सामने अनेक साथियों की मौत देख चुके थे। चीन के साथ हुए युद्ध में तो मौत सामान्य लगने लगी थी, युद्धभूमि से बचकर बैरक में वापस आ जाना किसी आश्चर्य से कम नहीं होता था। युद्ध के समय मिलिट्री में धार्मिक-शिक्षक की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है। रिलीजियस टीचर के द्वारा रामायण और गीता के उपदेशों को सुनाकर सैनिकों को रणभूमि में भेजा जाता था।इसलिए वे जीवन के हर दिन और हर पल को परमपिता का परमप्रसाद समझते थे। उनका दर्शन था- जिंदगी अनिश्चित है और मौत निश्चित है। 'मुकद्दर का सिकंदर' फिल्म का गाना हम सुनते आए हैं-
'जिंदगी तो बेवफा है एक दिन ठुकराएगी
मौत मेहबूबा है अपने साथ लेकर जाएगी...
सैनिकों को तो जीवन में यह मंत्र दिलोदिमाग में बिठा दिया जाता था कि मरोगे तो स्वर्ग का राज्य तुम्हें मिलेगा और जीतोगे तो पृथ्वी का राज्य। मरने पर शहीद का दर्जा और जीतने पर विजेता का दर्जा। सैनिक प्रशिक्षण का प्रभाव ऐसा था कि अधिकतर सैनिक पीठ दिखाने की अपेक्षा शहीद होना ज्यादा पसंद करते थे।
रील लाइफ और रियल लाइफ में बहुत अंतर होता है। लेकिन बाबूजी के रियल लाइफ में भी मौत के प्रति एक स्वीकार भाव मुझे दिखा। एक अवसर था उनकी परीक्षा का।जब मां का देहांत हो गया तो हम सभी का रो-रो कर बुरा हाल था। किंतु बाबूजी बहुत शांत भाव से भगवान का नाम ले रहे थे। अंत्येष्टि-क्रिया गंगा किनारे चल रही थी और अंत में सभी गंगा में स्नान कर तीव्र ढलान वाली गंगा किनारे पर ऊपर की ओर एक दूसरे का सहारा लेकर चढ़ने लगे। मन टूट गया था, इसलिए तन भी टूट कर कमजोरी महसूस कर रहा था।
बाबूजी वृद्ध थे, उनको सहारा देने के लिए हाथ बढ़ाया गया। किंतु उन्होंने हाथ पकड़ने से इनकार कर दिया ठीक एक जवान सैनिक की तरह। वे अपनी धर्मपत्नी का अंत्येष्टि संस्कार करके तीव्रढलान वाले गंगा तट पर बिना किसी सहारे के स्वयं ही चढ़कर ऊपर आए।
यह दृश्य मेरी आंखों में बस गया। घर आकर उन्होंने रोते-बिलखते हुए हम सबको देखकर समझाया कि यह मृत्यु-लोक है। सबको एक दिन जाना है। इसलिए शोक मनाना तो ठीक है किंतु भीतर और बाहर से टूट जाना ठीक नहीं। मिलिट्री में तो साथी के मरने पर रोने का मौका भी नहीं मिलता था। बाकी बचे टास्क को पूर्ण करने के बाद उसके शव को देखने और श्रद्धांजलि देने का कार्यक्रम किया जाता था। फिर तुरंत युद्ध मोर्चे पर वापस लौटना पड़ता था।
अपने पिता की इन बातों को मैं खूब आदर के साथ याद कर रहा हूं किंतु इस समय मैं मन के किसी कोने में अपने पिता से राजी नहीं हो पा रहा हूं क्योंकि असामयिक मौतों ने बहुत विचलित कर दिया है। और परमपिता से तो सख्त नाराज हूं। क्योंकि युद्ध में मर जाना और दुर्घटना में मर जाना: इन दोनों में बहुत अंतर होता है। युद्ध में कठोर भाव के साथ मानसिक तैयारी करके कोई जाता है, यहां तो कोमल भाव के साथ आंखों में सुंदर सपना लिए हुए हर कोई विमान में बैठा था।
बाबूजी प्रत्येक दिन गीता का एक मंत्र बोला करते थे-"जो हो रहा था अच्छा हो रहा था,जो हो रहा है अच्छा हो रहा है, जो होगा अच्छा होगा।" किंतु इस समय मैं नहीं कह सकता कि 'जो हो रहा है,अच्छा हो रहा है।' इस 'फादर्स डे' के दिन तो इच्छा हो रही है कि ऊपर जाकर पिता से और परमपिता से यह पूछूं कि एक बार विमान हादसे को देखिए और फिर बताइए कि कैसे मैं बोलूं कि जो हो रहा है अच्छा हो रहा है , जो होगा अच्छा होगा...
'गगन में दमकते करोड़ों सितारे
घड़ी भर चमक कर छिपेंगे बिचारे
रहा घूम कोई ,रहा गुम कोई
किसे लोचनों का सितारा समझ लूं!
किसे जिंदगी का सहारा समझ लूं!!
जलधि में कई द्वीप जो दिख रहे हैं
सभी काल की धार से कट रहे हैं
यहां भी हिलोरें ,वहां भी हिलोरें
कहां जिंदगी का किनारा समझ लूं!
किसे जिंदगी का सहारा समझ लूं!!
'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो. सर्वजीत दुबे🙏🌹