🙏विश्व योग दिवस और विश्व संगीत दिवस (21जून)की शुभकामना🙏


संवाद


'योग और संगीत:पंक्षी के दो पंख'


योग और संगीत जीवनरूपी पंक्षी के लिए दो पंख हैं जिससे वह आकाश की ओर उड़ सकता है। दुर्भाग्य की बात है कि ये दोनों शब्द जितना प्रचलन में है,उतना ही ज्यादा अपरिचित है। योग के नाम पर आसन-प्राणायाम प्रचलित हो गया और संगीत के नाम पर कामुक-कोलाहल प्रचलित हो गया।


       भारतीय ज्ञान परंपरा के अनुसार योग जीवन की अद्वैतवादी दृष्टि है और संगीत परस्पर विरोधी तत्वों में सामंजस्य बिठाकर आत्मा को परमात्मा में लीन कर देने की कला है।


        साधना की ऊंचाई पर जो योग और संगीत उत्पन्न हुए वे आज बाजारवादी व्यवस्था में व्यवसाय का माध्यम बन गए हैं। अतः ऐसे योगी और संगीतज्ञ  दुर्लभ हो गए हैं जिनसे परमात्मा की ओर उन्मुख होने की प्रेरणा मिले।


               योग की मान्यता है कि जीवन एक उर्जा है। पदार्थ को ही सब कुछ मानने वाले विज्ञान ने भी पाया कि मैटर को तोड़ने पर इलेक्ट्रॉन,प्रोटॉन,न्यूट्रान मिला जो उर्जा का एक रुप है। ऊर्जा तटस्थ होती है।अयोगी इस ऊर्जा को विध्वंसक बना देता है और योगी इसे सृजनशील बना देता है। यम,नियम,आसन,प्राणायाम प्रत्याहार,धारणा,ध्यान,समाधि-ये योग के आठ अंग है। सरल शब्दों में कहें तो 8 सीढियां हैं जो इतना वैज्ञानिक हैं कि कोई भी व्यक्ति इनको पार करते हुए अपनी आत्मा को परमात्मा तक पहुंचा सकता है।


             इसी प्रकार गायन,वादन और नृत्य से बना संगीत जीवन को रस से भर देता है। ऋषि कहते हैं-'रसो वै स:' अर्थात् वह आत्मा रसस्वरुप है। किंतु आज संगीत से जुड़े लोगों में भी अवसाद और आत्महत्या की घटनाएं बता रही है कि उनके  जीवन का रस क्षीण हो गया है।


          जबकि मीरा गाकर कृष्ण को पा गई, नानक एक ओंकार सतनाम को गाकर परमात्मा को उपलब्ध हो गए। साधना के अभाव में हमारा सुर ही नहीं सधता है, इसलिए अधिक लोग असुर हो गए।


            वीणापाणि की वीणा को प्राचीन युग में नारद ने और मुगलकाल में तानसेन ने अद्भुत ढंग से बजाया। आधुनिक काल में रविशंकर ने ऐसा सितार बजाया और पं. हरिशंकर चौरसिया ने ऐसी बांसुरी बजाई कि वे लोक के पार श्रोताओं को ले गए-


'दूर तम के पार से यह कौन मेरे पास आया


नींद में सोए हुए संसार को किसने जगाया


कर गया है कौन फिर भिनसार वीणा बोलती हैं


छू गया है कौन मन का तार वीणा बोलती हैं।'


अधिकांश लोगों के पास कोई वाद्ययंत्र हो भी तो बजाने की कला के अभाव में कोलाहल पैदा होता है।


              नृत्य को तो हमारी संस्कृति ने अद्भुत महिमा दी है-'आत्मा नर्तक:'अर्थात् आत्मा नर्तक है। हमने महादेव को नटराज कहा। यह नृत्य अंगों पर खत्म होने वाला नृत्य नहीं है। यह नृत्य तन और मन के पार ले जाकर आत्मन् को परमात्मन् में लीन कर देता है।


          संगीत के किसी कार्यक्रम में कितने प्रकार के वाद्य होते हैं,जो अलग-अलग प्रकार की ध्वनियां पैदा करते हैं जिनसे कोलाहल पैदा हो सकता है। किंतु ऑर्केस्ट्रा में परस्पर विरोधी वाद्यों में ऐसा सामंजस्य बैठता है कि श्रोता मंत्रमुग्ध हो जाते हैं।


          योग भी परस्पर विरोधी दिखने वाले तन-मन,जड़-चेतन,आस्तिक-नास्तिक,अस्तित्व- अनस्तित्व, दिल-दिमाग,पदार्थ-परमात्मा को एक सूत्र में ऐसा पिरोता है कि विरोध गायब हो जाता हैं। सिर्फ समन्वय और सामंजस्य बचता है जो भारतीय संस्कृति का मूल संदेश है।


'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹