जातिव्यवस्था बनाम वर्णव्यवस्था
July 3, 2025🙏कथावाचन और ब्राह्मण विवाद का मूल🙏
संवाद
'जातिव्यवस्था बनाम वर्णव्यवस्था'
कथावाचक और ब्राह्मण विषय को लेकर समाज में चर्चा चल रही है। शिक्षा का काम है कि विवाद को संवाद की ओर ले जाने का प्रयास करे। भारतीय ज्ञान परंपरा विवाद को बहुत सम्मान देती है क्योंकि संवाद तक पहुंचाने वाली यह सीढ़ी है। भारतीय संस्कृति में शास्त्रार्थ की परंपरा में पांच चीजें होती हैं: विषय (subject), संशय (doubt), पूर्वपक्ष (पहला पक्ष, विरोधी तर्क), उत्तर (उत्तर, समाधान), और निर्णय (निष्कर्ष)।
कथावाचक का जाति पूछकर अपमान पूर्णतया गलत है। किंतु कथावाचक को भी अपनी पहचान छुपाने की कोई जरूरत नहीं थी। अलग-अलग नाम से दो आधार कार्ड तो कानूनन अपराध हो जाता है।
कथावाचक ब्राह्मण जाति का ही हो सकता है, यह भी सही नहीं है। किंतु जाति के नाम पर राजनीति करने वालों के लिए जब एक अवसर उपस्थित हो जाता है तो राजनीतिक सक्रियता से विवाद बढ़ जाता है।
हमारी सनातन परंपरा में वेदांत सर्वोपरि है। वेदांत में वर्ण का जिक्र है,जाति का नहीं। वर्ण और जाति को पर्यायवाची मानने से विवाद बढ़ जाता है। वर्ण का निर्धारण गुण और कर्म के आधार पर किया जाता है जबकि जाति का निर्धारण जन्म के आधार पर।गीता के अध्याय 4 के श्लोक 13 में भगवान कृष्ण कहते हैं-
'चातुर्वर्ण्यम् मया सृष्टं गुणकर्म विभागश:'
जिसका अर्थ है, "मैंने गुणों और कर्मों के विभाग के अनुसार चार वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) की रचना की है।"
ओशो का कहना है कि वर्ण व्यवस्था आध्यात्मिक विकास की चार अवस्था है-जो सिर्फ शरीर पर केंद्रित वह शूद्र, जो धन पर केंद्रित वह वैश्य, जो शक्ति पर केंद्रित वह क्षत्रिय, जो ज्ञान पर केंद्रित वह ब्राह्मण है।
भारत विश्वगुरु ज्ञान के आधार पर बना था।ज्ञान के खोजी ब्राह्मण ने यह जाना कि यदुकुल में जन्म लेने वाले कृष्ण और क्षत्रियकुल में जन्म लेने वाले राम अपने गुणों के कारण पूजा के योग्य हैं। पूर्णावतार कृष्ण और मर्यादापुरुषोत्तम राम की पहचान के लिए ज्ञान जरूरी है। यह ज्ञान जब ब्राह्मणेत्तर कुल में जन्मे वाल्मीकि और वेदव्यास में आविर्भूत हुआ तो रामायण और महाभारत जैसे ग्रंथ का जन्म हुआ।
ये उदाहरण यह बताते हैं कि जब हमने वर्ण व्यवस्था को जन्म के आधार पर निर्धारित करके चिरस्थाई जातिगत व्यवस्था बना दी तो हमारे आध्यात्मिक विकास की यात्रा रुक गई और समाज का पतन शुरू हो गया। राष्ट्रकवि दिनकर ने भी रश्मिरथी में यह प्रश्न उठाया है कि
'मैं कहता हूँ, अगर विधाता नर को मुठ्ठी में भरकर,
कहीं छींट दें ब्रह्मलोक से ही नीचे भूमण्डल पर,
तो भी विविध जातियों में ही मनुज यहाँ आ सकता है;
नीचे हैं क्यारियाँ बनीं, तो बीज कहाँ जा सकता है?
जाति चुनना किसी के वश की बात नहीं है किंतु अपने पुरुषार्थ के बल पर अपने गुण और कर्म से ज्ञान अर्जित करके ब्राह्मण हो जाना प्रत्येक व्यक्ति के वश की बात है। भारत जैसे विविधतापूर्ण देश के लिए सर्वसमावेशी संविधान का निर्माण करने वाले सारे मनीषी गुण और कर्म से ब्राह्मण थे। बाबा साहब इसके प्रत्यक्ष उदाहरण है।
यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि कोई भी व्यवस्था पूर्ण नहीं होती। जाति व्यवस्था तो बहुत ज्यादा शोषणकारी और अपूर्ण है किंतु वर्ण व्यवस्था का आज भी विकल्प ढूंढना मुश्किल है। इसका कारण यह है कि मन की प्रवृति चार प्रकार की होती है-एक इंद्रिय में सुखवाला, दूसरा धन में सुखवाला, तीसरा शक्ति में सुखवाला और चौथा ज्ञान में सुखवाला। भारतीय संस्कृति में उन्हें शूद्र,वैश्य,क्षत्रिय और ब्राह्मण कहा गया।
आज भी आधुनिक मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि मन की वृत्ति चार प्रकार की ही है, इसलिए आज भी किसी भी देश और किसी भी समाज में चार प्रकार के लोग ही पाए जाते हैं। जो ज्ञान की वृत्तिवाले हैं उन्हें एजुकेशनिस्ट या साइंटिस्ट कहते हैं, जो शक्ति की वृत्तिवाले हैं उन्हें एडमिनिस्ट्रेटिव/मिलिट्री/पुलिस/ पॉलीटिकल फोर्स कहते हैं, जो धन की वृत्तिवाले हैं उन्हें इंडस्ट्रियालिस्ट या कैपिटलिस्ट कहते हैं ; और जो इंद्रिय सुखों की वृत्तिवाले हैं, वे सहायक बनकर असिस्टेंट कहलाते हैं।
अब कथावाचक और ब्राह्मण विषय पर गौर कीजिए। अनौपचारिक कर्म व्यवस्था में कोई किसी भी जाति का हो उससे अंतर नहीं पड़ता। गुण और कर्म से वह ज्ञान का उपासक है तो उसको सभी ब्राह्मण रूप में स्वीकार करते हैं। आज वैज्ञानिकों की जाति कौन पूछता है? अच्छा पढ़ाने वालों की जाति का किसे ध्यान रहता है?
सिर्फ परंपरा से चली आ रही कर्मकांडीय व्यवस्था में पूजा कराने के लिए और कथावाचक होने के लिए गुण और कर्म से ब्राह्मण होने के साथ कुल से भी ब्राह्मण को ही सब कोई स्वीकार करते आ रहे हैं। किंतु कोई निम्न कुल में जन्म लेने के बावजूद ऊंची योग्यता रखता है तो उसे हमारे समाज में संत के रूप में स्वीकार किया गया है। कबीर जुलाहा जाति के थे, रविदास चमार थे, गोरा कुम्हार थे, नामदेव दर्जी समुदाय से थे। इन सभी के अनगिनत भक्त ऊंची जातियों के लोग भी थे।
जाति के आधार पर होने वाले शोषण और भेदभाव ने जातिगत व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह खड़े कर दिए।इससे वर्ण व्यवस्था की वैज्ञानिकता कम नहीं होती बल्कि उसके प्रयोग में आने वाली चुनौतियों का भान होता है। आज भी हकीकत यह है कि किसी भी जाति का व्यक्ति पूजा पाठ करवाने के लिए और कर्मकांड के लिए ब्राह्मण कुल में जन्मे व्यक्ति की ही खोज करता है। चेतन और अचेतन मन में यह बात इतनी गहरी बैठ गई है कि इस परंपरा के विरुद्ध जाने का साहस नहीं होता क्योंकि किसी अनिष्ट की आशंका होती है।
किंतु ओशो ने स्पष्ट कहा कि आज की जाति व्यवस्था, जो जन्म के आधार पर तय की जाती है, मानव विकास के विरोध में है। यह मनुष्य की स्वतंत्रता, खोज और आत्म-विकास को बाधित करती है।किसी व्यक्ति का ब्राह्मण होना, क्षत्रिय होना, वैश्य या शूद्र होना, उसकी चेतना, स्वभाव और योग्यता पर आधारित होना चाहिए, न कि उसके जन्म पर। वर्ण व्यवस्था का मूल रूप जीवन के भीतर छिपे विभिन्न स्तरों की एक सुंदर अभिव्यक्ति थी, लेकिन यह सामाजिक भेदभाव और सत्ता के खेल में बदल गई। इसे आध्यात्मिक जागृति और आत्म-बोध के आधार पर पुनः परिभाषित करने की जरूरत है।
'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹