🙏श्री गुरवे नम:🙏


संवाद


'गुरु और गुरुकुलीय प्रणाली से दूर शिक्षा'


'गुरु' शब्द विश्व की किसी अन्य संस्कृति में नहीं है। 'गु' का अर्थ होता है अंधकार और 'रु' का अर्थ होता है दूर करने वाला। अंधकार जीवन में है, इसका अनुभव सभी को होता है। इस अंधकार को दूर करने वाला भी कोई है, उस तत्व की खोज भारतीय संस्कृति को विशेष बनाती है, जिसे गुरु नाम दिया गया। काम,क्रोध,लोभ,मोह के अंधकार में घिरा हुआ जीवन बहुत पीड़ा देता है। इस पीड़ा से मुक्ति  दिलाने वाले गुरु हमारी संस्कृति में गोविंद से भी बड़े हो जाते हैं।


            काम के कारण व्याभिचार, क्रोध के कारण हिंसा, लोभ के कारण भ्रष्टाचार और मोह के कारण पक्षपात आज इतना बढ़ गया है कि जनजीवन खतरे में पड़ गया है। भौतिकवादी दृष्टि के कारण काम-क्रोध-लोभ-मोह के बीज को हम खाद-पानी दिए चले जाते हैं। अध्यात्मवादी दृष्टि के कारण काम ब्रह्मचर्य बन जाता है,क्रोध करुणा बन जाता है,लोभ दान बन जाता है और मोह त्याग बन जाता है।


           गुरु वह व्यक्तित्व है जिसने स्वयं की आत्मा को जाना और परमात्मा के प्रकाश से प्रकाशित हो गया। साधारण जन जैसा दिखता हुआ भी गुरु असाधारण हो जाता है क्योंकि उसके अंदर का अंधकार आत्मसाक्षात्कार के कारण परमात्मा के प्रकाश से मिट गया। आज बहुत पढ़े-लिखे लोगों में और बेपढ़े लोगों में काम-क्रोध-लोभ-मोह की दृष्टि से कोई विशेष अंतर नहीं होता। इसलिए गुरु अद्भुत बात कहता है-


"आहार निद्रा भय मैथुनं च समानमेतत् पशुभिर्नराणाम् 


धर्मो हि तेषामधिको विशेष: धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः।"


इसका अर्थ है कि आहार,निद्रा,भय और मैथुन  ये चार चीजें मनुष्य और पशु दोनों में समान हैं। मनुष्य में विशेष धर्म है, और धर्म के बिना मनुष्य पशु के समान है।


              इस धर्म के जागरण के लिए ही गुरुकुलीय प्रणाली की व्यवस्था हमारे यहां की गई थी।भारतीय ज्ञान परंपरा में धर्म के अनुसार मूल्यों को जीने वाले साक्षात व्यक्तित्व को ही गुरु कहा गया। नरेंद्र नाथ दत्त को रामकृष्ण परमहंस के मुकाबले शब्द ज्ञान बहुत था किंतु परमहंस का आत्मज्ञान ऐसा था कि नरेंद्र ने समर्पण कर दिया और विवेकानंद बन गए।


            राष्ट्रीय शिक्षा नीति भारतीय ज्ञान परंपरा को तो बढ़ाना चाहती है किंतु गुरुकुल प्रणाली के बिना यह संभव नहीं है। मूल्यों को जीने वाले जिंदा व्यक्तित्व चाहिए और उनका आश्रम चाहिए। आश्रम में ऐसे गुरु के सान्निध्य में अहर्निश समर्पित आत्मज्ञान के पिपासु शिष्य चाहिए। गुरु शिष्य की एकांतिक साधना को अनवरत चलाने हेतु बाहरी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए समाज और सरकार का पूर्ण सहयोग चाहिए। तब आत्मवान पीढ़ियां मिलती हैं।


'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹


🙏गुरु पूर्णिमा की शुभकामना🙏