🙏भाषा विवाद पर एक विचार 🙏


संवाद


'भाषा के प्रति सांस्कृतिकदृष्टि बनाम राजनीतिक दृष्टि'


भाषाभाषी की प्रवृत्ति यदि सांस्कृतिक हो तो भाषा जोड़ती है किंतु यदि प्रवृत्ति राजनीतिक हो तो भाषा तोड़ती भी है। चाकू यदि चिकित्सक के हाथ में हो तो शल्यक्रिया द्वारा किसी की जान बच जाती है किंतु यदि किसी अपराधी के हाथ में हो तो किसी की जान चली जाती है।


           भाव या विचार किसी भाषा में अभिव्यक्ति पाकर सर्वसामान्य के लिए सुलभ हो जाता है। जिसको जितनी भाषा आती हैं ,उतना ही उसके लिए ज्ञान के और दूसरों से जुड़ने के दरवाजे खुल जाते हैं।


'चार कोस पर पानी बदले,आठ कोस पर वाणी' वाली दुनिया में बैलगाड़ी युग में एक भाषा से काम चल जाता था लेकिन जेटयुग में बहुभाषिक हुए बिना कोई भी व्यक्ति स्वयं को दीनदरिद्र महसूस करेगा।


        रामकृष्ण की ईश्वरीय अनुभूति बहुत गहरी थी किंतु उनके शिष्य विवेकानंद ने विश्वधर्मसम्मेलन-शिकागो में जाकर अंग्रेजी में उसकी अभिव्यक्ति नहीं दी होती तो सारी दुनिया क्या, बंगाल भी रामकृष्ण परमहंस से वंचित हो जाता। बंगाली मातृभाषा वाले नरेंद्रनाथ दत्त ने संस्कृत भाषा के ज्ञाता होने के बावजूद विदेशों में अंग्रेजी में अभिव्यक्ति देकर और भारत में हिंदी में अभिव्यक्ति देकर हिंदू धर्म की आध्यात्मिकज्ञान परंपरा को देश-विदेश में प्रसारित कर दिया।


            भारतीय ज्ञान परंपरा मानती हैं कि भाषा,धर्म और संस्कृति को फैलाने के लिए ज्ञान और प्रेम दो रास्ते हैं। राजनीतिक प्रवृत्ति के पास एक तीसरा रास्ता है-जोरजबरदस्ती। इसी राजनीतिक प्रवृत्ति की चपेट में भाषा के नाम पर एक नए विवाद को जन्म दिया जा रहा है,जिसका मूल मकसद अपने वोट बैंक को सुदृढ़ कर अपनी सत्ता और अपनी पहचान को बचाना है,भाषा को बढ़ाना नहीं। अन्यथा हिंदी,मराठी, तमिल या किसी भी भाषा की राजनीति करने वाले लोग अपनी संतानों को किसी अन्य भाषा में नहीं पढ़ाते। लेकिन इन नेताओं की संतानें देशविदेश की अंग्रेजी-शिक्षासंस्थानों में पढ़ रही हैं और इनके अनुयायी दूसरे को अपनी भाषा में बात करने के लिए जोरजबरदस्ती और मारपीट कर रहे हैं। इसकी क्रिया-प्रतिक्रिया में भाषायी जंग बढ़ती जा रही है, जिसकी कीमत आमजन को चुकानी पड़ रही है।


          स्वतंत्रता की लड़ाई में एकता हमारी सबसे बड़ी ताकत बनी और हिंदुस्तानी भाषा सबसे सशक्त माध्यम बनी। तभी तो गुजरातीभाषी महात्मा गांधी हों या मराठीभाषी तिलक हों या पंजाबीभाषी लालालाजपत राय हों या बांग्लाभाषी बोस हों या अंग्रेजी भाषी नेहरु हों या तमिलभाषी सी.राजगोपालाचारी हों ; सभी ने जोड़ने का माध्यम बनकर उभरती हुई हिंदुस्तानी भाषा को अपना समर्थन दिया क्योंकि इसी हिंदुस्तानी भाषा को भारत की अधिकतम जनता समझ रही थी।संस्कृत की बेटी कही जानेवाली हिंदी अपनी शब्दसंपदा और समावेशीभाव के कारण उत्तर से लेकर दक्षिण तक और पूरब से लेकर पश्चिम तक फैलती जा रही थी।


          लेकिन ज्योंही देवनागरी लिपि में लिखी जानेवाली हिंदी को राजभाषा घोषित करने का निर्णय लिया गया त्योंही स्वतंत्रता संग्राम में साथ चलने वाले बंगाली,मराठी,तमिल इत्यादि भाषाओं के राजनीतिज्ञों को अपनी भाषायीसंस्कृति और अस्मिता खतरे में पड़ती दिखाई दी और हिंदी का जबरदस्त विरोध शुरू हो गया। यहां तक कि 'English ever,Hindi never' का नारा दक्षिण में इतना गूंजने लगा कि अंग्रेजी को अगले 15 वर्षों तक राजभाषा बनाए रखने का प्रावधान करना पड़ा।


'अपने होने का सुबूत और निशां छोड़ती है


रास्ता कोई नदी यूं हीं कहां छोड़ती है


नशे में डूबे कोई ,कोई जीए , कोई मरे


तीर क्या-क्या तेरी आंखों की कमां छोड़ती है।'


                   स्वभाषा प्रेम के नाम पर कोई भाषा के नशे में डूब गया, कोई उसी के लिए जीने की कसम खाने लग गया और यहां तक कि कुछ लोग मरने लगे। अब एक नया दौर आया है जिसमें लोग स्वभाषा नशे में दूसरे भाषा के लोगों को मारने लगे हैं। इससे कोई उनकी भाषा सीखने के लिए प्रेरित नहीं हो रहा बल्कि उनकी भाषा के प्रति घृणा के भाव से भर जा रहा है। मराठी और कन्नड़ के नाम पर दूसरी भाषा बोलने वालों के साथ बदतमीजी और मारपीट करने वाले को यह समझना चाहिए कि दूसरी जगह पर रहने वाले मराठी और कन्नड़ लोग इस क्रिया के विपरीत प्रतिक्रिया के शिकार हो सकते हैं। ऐसा आचरण संविधान के विरुद्ध और राष्ट्रीय एकता के लिए खतरनाक है।


       समाधान इस बात में है कि बहुभाषी देश भारत में जहां आठवी अनुसूची में 22 भाषाओं को मान्यता दी गई है, वहां एक हिंदी को राजभाषा का दर्जा देने का निर्णय इस भाषा विवाद के मूल में हैं। स्वतंत्रता संग्राम के समय कई बोलियों से मिलकर बनी हुई संपर्क भाषा के रुप में उभरती हिंदुस्तानी अधिकांश को स्वीकृत थी।यह स्वीकार भाव समय के साथ बढ़ता जाता। हिंदी को राजभाषा का दर्जा देने से अन्य भाषाओं खासकर दक्षिण भारत की भाषा के लोग अपने आपको


द्वितीयक दर्जे का महसूस करने लगे। उनके भारी विरोध के कारण अंग्रेजी आज तक मुख्य रूप से राजकाज की भाषा बनी हुई है और हिंदी संविधान में राजभाषा का दर्जा पाने के बावजूद सहायक बनी हुई है। अब तो त्रिभाषा फॉर्मूला के नाम पर हिंदी थोपने का आरोप लगने लगा है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तहत त्रिभाषा फॉर्मूला तमिलनाडु द्वारा नहीं अपनाए जाने पर केंद्र सरकार ने शिक्षा से संबंधित फंड रोक दिया। महाराष्ट्र में भी हिंदी के विरोध के कारण वैकल्पिक रूप से हिंदी पढ़ाए जाने के आदेश को भी सरकार को वापस लेना पड़ा।


'हिंदी हिंदू हिंदुस्तानी' की विचारधारा वाली सरकार को भी यह समझना पड़ेगा कि हिंदी का विरोध करने वाले लोगों की भाषा को भी जब तक हिंदीभाषी सीखने का प्रयास नहीं करते तब तक हिंदी विरोध के उनके भाव को कम नहीं किया जा सकता। त्रिभाषा फार्मूला को लागू करने के लिए और हिंदी को आगे बढ़ाने के लिए जिस प्रकार से दक्षिण भारत में हिंदी के शिक्षकों की नियुक्ति की जाती है, उसी प्रकार से दक्षिण भारतीय भाषाओं के शिक्षकों की नियुक्ति भी हिंदी भाषी क्षेत्रों में किए जाने की जरूरत है।


भाषा एक संवेदनशील मुद्दा है क्योंकि यह संस्कृति और स्वाभिमान के साथ रोजगार से भी जुड़ा हुआ है-


'खुद भी खो जाती है,मिट जाती है,मर जाती है


जब कभी कोई कॉम अपनी जबां छोड़ती है


जब्ते गम खेल नहीं है अभी कैसे समझाऊं


देखना मेरी चिता कितनी धुआं छोड़ती है‌।'


'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹