राधाकृष्ण के देश में राधिका
July 16, 2025संवाद
'राधाकृष्ण के देश में राधिका'
गर्भधारण करने की क्षमता के कारण स्त्री सृष्टि के मूल में है। सृष्टि को आगे बढ़ाने वाली ही निर्मूल हो गई तो वह सृष्टि कैसी होगी? न वह घर में सुरक्षित है और न बाहर। न वह कोख में सुरक्षित है और न कब्र में। राधिका की प्रतिभा की कली को खिलाने के लिए जिस घर ने सारी सुविधाएं जुटाई और सारी स्वतंत्रता दी, उसी घर में फूल सी राधिका कुचल दी गई। इस संपन्न घर में किसी चीज की कमी नहीं दिखाई दे रही किंतु राधिका की हत्यारूपी परिणाम चीख-चीखकर बता रहा है कि सोच में बहुत बड़ी कमी थी।
उस सोच को जब तक नहीं बदला जाता तब तक बेटियां कहीं भी सुरक्षित नहीं हो सकती; पितृसत्तात्मक समाज और पुरुषप्रधानमानसिकता में तो एकदम नहीं। इसका मतलब यह नहीं कि मातृसत्तात्मक समाज दूसरा विकल्प है। सही विकल्प है-आत्मसत्तात्मक समाज।
कभी हमारी संस्कृति ने वह ऊंचाइयां छुई थी,जहां अर्धनारीश्वर हमारा आदर्श बना-'जगत: पितरौ वंदे पार्वतीपरमेश्वरौ।' हमारे निर्माण में मां और पिता दोनों की भूमिका है। इसी कारण से सृष्टि एक दूसरे के बिना अधूरी है। स्त्री को पुरुष यदि साधन समझ ले तो प्रकृति में असंतुलन हो जाएगा। इसके कारण बेटियां मारी गई, बहुएं जलाई गई और विधवाएं सताई गईं। इसके कारण 'बेटी बचाओ,बेटी पढ़ाओ' से लेकर स्त्री सुरक्षा और सशक्तिकरण तक के कई प्रावधान लाए गए।
स्त्रियों के पक्ष में कानून बनाने से और उनके सशक्त होने से एक दूसरी समस्या उभर कर आई। कुछ स्त्रियां उन कानूनों का दुरुपयोग कर पुरुषों को प्रताड़ित करने लगीं। मतलब शक्ति का सदुपयोग नहीं हो रहा। अतः श्रद्धा ही नहीं कट रही है, सौरभ भी नीले ड्रम में मिलने लगे हैं। वस्तुत: शक्ति शिव के बिना अधूरी है। वैदिक काल में ऐसा भी समय था, जहां स्त्रियां ऋषिकाएं बनती थीं और शास्त्रार्थ में भाग लेती थीं। इस संस्कृति ने तो प्रेम को इतना महत्व दिया कि कृष्ण के साथ पत्नी-रुक्मणी का नहीं प्रिया-राधा का नाम लिया जाता है। मूल बात सोच की है और समझ की है। चेतना गर्भ में प्रवेश करती है और 3 महीने के बाद लिंग निर्धारण होता है। बाकी बेटा हो या बेटी सारी प्रक्रिया एक समान होती है। किंतु बेटा के जन्म के साथ जश्न मनाने की और बेटी के जन्म के साथ मातम मनाने की सोच ने सब कुछ बदल दिया।
पुरुषप्रधान पितृसत्तात्मक समाज में कोमल बेटियां सजाने,दबाने और मिटाने की चीज बनकर रह गई। बेटी को पराया-धन (वस्तु)मान लिया गया और बेटे को कुलदीपक। इस सोच ने सुंदर संसार को स्वर्ग से नरक में बदल दिया। इस सोच के साथ भेदभाव का जो सिलसिला आगे बढ़ा तो बेटियां अनमने ढंग से पाली जाने लगीं, बहुएं प्रताड़ित की जाने लगीं,जिसके परिणामस्वरुप संताने निम्न गुणवत्ता की पैदा होने लगीं।
बेटी के प्रति भेदभाव और फिर बहू के प्रति अत्याचार के कारण विवाह संस्था खतरे में पड़ गई। विवाह संस्था परिवार का मूल आधार होता है। जब जड़ कमजोर पड़ गई तो समाज सड़ गया। अब उस पर फूल नहीं मिलते, सिर्फ कांटे ही कांटे बच गए। दुनिया दुर्गंध से भर गई-
'खुशबू पाने के लिए बागों में कोई फूल खिलाना पड़ता है
ऐसे रिश्ते बन जाते हैं जो लोगों को समझाना पड़ता है।'
अर्धनारीश्वर या राधाकृष्ण का प्रतीक यही याद दिलाता है कि स्त्री पुरुष के बिना और पुरुष स्त्री के बिना सृजन नहीं कर सकते।
'बिना तुम्हारे खेला जाए ऐसा कोई फाग नहीं है
ऐसा कोई फूल न जिसमें तेरा मधुर पराग नहीं है।
ऐसी कोई लगन नहीं,जिसमें तेरी आग नहीं है
ऐसा कोई गीत नहीं है जिसमें तेरा राग नहीं है।।'
इस परिपूरकता के भाव को समझे बिना हमने एक प्रतियोगिता की दुनिया बना ली जिसमें पुरुष स्त्री को और स्त्री पुरुष को एक दूसरे का प्रतिद्वंदी समझने लगे हैं। एक दूसरे के साथ जीना भी नहीं आ रहा और एक दूसरे के बिना रहना भी नहीं आ रहा। अब लिव इन रिलेशन शुरू हो गया है जो विवाह संस्था के लिए भारी खतरा बनता जा रहा है।
उपाय क्या है?
एक ऐसी चेतना का निर्माण जो परस्पर विरोधी समझे जाने वाले स्त्री पुरुष के संबंध के बीच अविरोधी आत्मा को जन्म दे सके। यह आत्मा स्त्री हो या पुरुष हो; दोनों में है। आत्मा स्वयं में साध्य है, वह किसी को भी साधन नहीं बनाती है। गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-'आत्मन्येवात्मना तुष्ट:स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते'। अर्थात् जो स्वयं से ही स्वयं में संतुष्ट है, उसे स्थितप्रज्ञ कहते हैं। भाव यह है कि व्यक्तित्व का विकास इस प्रकार से होना चाहिए कि दूसरे की जरूरत ही न पड़े। वैदिक काल के गुरुकुल में इस प्रकार की आत्मज्ञान वाली विद्या ब्रह्मचर्य आश्रम में दी जाती थी, फिर शिष्य को गृहस्थ-आश्रम में प्रवेश का गुरु उपदेश करता था। आत्मज्ञानी जब गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता था, तब उसकी अपेक्षा दूसरे से न्यूनतम होती थी और
उत्तरदायित्व का भाव अधिकतम होता था।स्त्री-आत्मा की अपनी भूमिका है और पुरुष-आत्मा की अपनी भूमिका है। धर्म- अर्थ- काम-मोक्ष का पुरुषार्थ-चतुष्टय दोनों के लिए है। दोनों अपने धर्म का निर्वाह करते हुए और एक दूसरे को समझ कर आगे बढ़ते हुए ही मुक्ति के दरवाजे तक पहुंच सकते हैं। आज मूल समस्या यही है कि दोनों एक दूसरे को बंधन में डाल रहे हैं।
'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹