🙏एक तरफ अकालमृत्यु तो दूसरी तरफ आत्महत्या देनेवाले शिक्षासंस्थान पर विचार 🙏


संवाद


'जीवनदानवाले संस्थान क्यूं बन रहे मृत्युस्थान'


विद्यादान जीवनदान है फिर क्यों कहीं विद्यामंदिर की छत गिर जाती है तो कहीं नींव खोखली मिलती है! 'मृत्युशाला बनी पाठशाला' समाचारपत्र के मुखपृष्ठ पर लिखी जाती है क्योंकि सरकारी भवन की छत गिर गई लेकिन जहां की छतें बहुत मजबूत हैं ,वहां की नींव इतनी कमजोर निकली कि आत्महत्या रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट को गाइडलाइंस जारी करनी पड़ती है। उदयपुर के डेंटल कॉलेज की छात्रा श्वेता ने अपने सुसाइड नोट में जो लिखा है, वह शिक्षा संस्थान के लिए कलंक की ऐसी काली स्याही है,जो मिटाए नहीं मिटे।


         भारतीय संस्कृति ज्ञान को परम पवित्र और परम आनंद मानती है-


''नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते"  और "ज्ञानम् अनंतम् आनंदम्"


     फिर क्यों ज्ञान के संवाहक शिक्षासंस्थान आज मृत्यु और आत्महत्या के वाहक बन रहे हैं?


           इसका जवाब सुप्रीम कोर्ट ने शिक्षण संस्थानों के लिए अपनी 15 सूत्री गाइडलाइंस जारी करते हुए यह कह कर दिया है कि शिक्षा केवल जानकारी नहीं, जीवन जीने की कला हो। कोर्ट ने महान दार्शनिक जिद्दू कृष्णमूर्ति की किताब 'Education and the significance of life' का उद्धरण देते हुए कहा कि 'शिक्षा का उद्देश्य ऐसे मनुष्यों को गढ़ना है जो एकीकृत हो और सच में बुद्धिमान हो।'


            आज हमारे पास एक तरफ सरकारी शिक्षा संस्थान है जहां मनुष्य से ज्यादा सामान पर जोर दिया जा रहा है तो दूसरी तरफ निजी शिक्षण संस्थान और कोचिंग संस्थान है जहां शिक्षा बेची जा रही है। जहां सरकारी शिक्षण संस्थानों में पढ़ने-पढ़ाने से ज्यादा सूचना लेने और देने पर ध्यान है, वहां निजी शिक्षण संस्थानों में मनुष्य को मशीन बनाया जा रहा है। एक तरफ सरकारी शिक्षा संस्थानों में शिक्षकों को गैर शैक्षिक कार्यों में नियोजित कर विद्यार्थियों को सिर्फ साक्षर बनाया जा रहा है तो दूसरी तरफ निजी शिक्षण संस्थानों में हृदय को मारकर सिर्फ मस्तिष्क को प्रशिक्षित किया जा रहा है।


     इस स्थिति में राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 की भारतीय ज्ञान परंपरा बहुत महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर सकती है; क्योंकि भारत ने शिक्षा की जो परिभाषा की थी वह पश्चिमी देशों की परिभाषा से पूर्णतया भिन्न है। मैकाले की शिक्षा-पद्धति में 'शिक्षा के नाम पर कुछ जानकारी बाहर से भीतर की ओर मस्तिष्क में ठूंसना था जबकि भारतीय ज्ञान परंपरा में अंतर्निहित आत्मा की शक्ति को जगाना था।   


           आज मोबाइल के युग में सारी सूचना मिल जाती है किंतु मोबाईल या ए-आई यंत्र शिक्षक का विकल्प नहीं हो सकता। यंत्र मस्तिष्क तो भर सकता है किंतु हृदय तो शिक्षक के बिना खाली का खाली रह जाएगा। इसलिए आज-


'अक्ल बारीक हुई जाती है


रूह तारीक हुई जाती है।'


मस्तिष्क जितना बढ़ता जा रहा है,हृदय उतना ही सिकुड़ता जा रहा है। स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि शिक्षा का अर्थ मनुष्य का निर्माण करना है केवल सूचनाओं का संग्रह नहीं है, बल्कि व्यक्ति के भीतर छिपी पूर्णता की अभिव्यक्ति है। शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास को बढ़ावा दे,चरित्र निर्माण करे, और व्यक्ति को आत्मनिर्भर बनाए। 


             गुरुकुल प्रणाली में ऐसी शिक्षा दी जाती थी। उस शिष्य गुरु परंपरा की ओर लौटे बिना हम मनुष्य निर्माण करने वाली शिक्षा को पुनर्जीवित और प्रतिष्ठित नहीं कर सकते। कुलपतियों का पदनाम कुलगुरु तो कर दिया गया किंतु गुरुकुल की ओर अभी कदम बढ़ाना शेष है।कृष्ण और सुदामा संदीपनी ऋषि के आश्रम में एक साथ तभी शिक्षा प्राप्त कर सके जब शिक्षा की परिभाषा कुछ और थी और शिक्षा की पाठशाला कुछ और।


वैज्ञानिक-राष्ट्रपति अब्दुल कलाम साहब ने अपनी जीवनी में स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय तक के ऐसे शिक्षकों का जिक्र किया है जिनका मस्तिष्क ही नहीं बल्कि हृदय ने भी उनको आमूलचूलरूप से परिवर्तित किया। फिर भारतीय ज्ञान परंपरा की बात करने वाली हमारी सरकार आध्यात्मिकता और वैज्ञानिकता से पूर्ण शिक्षा के लिए अनुकूल परिस्थिति और संसाधन क्यों नहीं मुहैया कराती?


'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹