🙏भगदड़ से हो रही मौत की विवेचना🙏


संवाद


'भीड़ और भगदड़ के मूल में भेड़वृति'


भारत समस्याओं के बोझ तले दबा जा रहा है। उन समस्याओं में से अब एक प्रमुख समस्या है-भीड़ और भगदड़ की। भारत की जनसंख्या इतनी अधिक हो गई है कि मंदिर हो या मेला, बस स्टैंड हो या रेलवे स्टेशन, अभिनेता आए या नेता, कोई खेल हो या खिलाड़ी का शो ; जहां भी देखो वहीं भीड़ जुट जाती है।


          हरिद्वार के मनसा देवी मंदिर की हृदयविदारक घटना इस बात का प्रमाण है कि सुकून देने वाले स्थान भी भीड़ की मनोवृति के कारण शोक देने वाले स्थान बनते जा रहे हैं।अपनी मंशा की पूर्ति किसी देवी/देवता या नेता/अभिनेता से हो जाएगी, इस आशा में अधिकांश भाग्यवादी लोग भागे जा रहे हैं और दुर्घटना का शिकार हो रहे हैं।


              मन पर काम करने वाले शिक्षा-संस्थान या तो वीरान हो रहे हैं या दुकान हो रहे हैं। तभी तो शिक्षा भवन की कहीं छत गिर रही है तो कहीं नींव ही खोखली मिल रही है। छत गिरने से अकालमृत्यु और नींव हिलने से आत्महत्या की खबर जब जीवन देने वाले शिक्षा-संस्थान से आने लगे तो समझिए कि हमने भारत की मूल आत्मा खो दी। नालंदा विश्वविद्यालय जैसे शिक्षण-संस्थानों के कारण भारत कभी विश्वगुरु बना था,जहां पर ऐसे मन का निर्माण किया जाता था कि व्यक्ति मेले में भी अकेला होता था और अकेले में भी उसके आनंद का मेला लगता था। आज का व्यक्ति अकेले में अवसाद या आत्महत्या का शिकार हो जाता है और मेले में भगदड़ का।


           आखिर ऐसी समस्या का समाधान क्या है? रहस्यदर्शी ओशो ने दो समाधान दिए थे-पहला किसी भी कीमत पर जनसंख्या का नियंत्रण और दूसरा सम्यक्- शिक्षाव्यवस्था द्वारा सुमन का निर्माण।


        राजनीति ने इन दोनों से किनारा कर लिया। ओशो की सलाह पर आयरन लेडी इंदिरा गांधी ने जनसंख्या नियंत्रण का एक ईमानदार प्रयास किया था किंतु भ्रामक प्रचार के कारण उन्हें अपनी सत्ता गंवानी पड़ी। तब से कोई भी राजनीतिक दल जनसंख्या नियंत्रण के बारे में स्पष्ट नीति लाने की हिम्मत नहीं करता।


          दूसरा शिक्षा के बारे में 75 वर्षों के बाद भी हमारा प्रयोग चल रहा है जिसके कारण शिक्षा संस्थान और भी ज्यादा अव्यवस्था का शिकार बन रहा है। जिस देश ने शिक्षा के क्षेत्र में अद्भुत ऊंचाइयां स्पर्श की हो और विश्वगुरु के पद पर प्रतिष्ठित हुआ हो, उस देश में शिक्षक गैरशैक्षिककार्यों के बोझ तले दबा जा रहा है, इससे बड़े दुर्भाग्य की बात और क्या होगी?


             राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 इन दोनों समस्याओं के संबंध में समाधान देता है-पहला भारतीय ज्ञान परंपरा को आधार बनाना और दूसरा शिक्षकों को गैरशैक्षिक कार्यों से मुक्त करना।शिक्षा में आध्यात्मिकता और वैज्ञानिकता का समावेश ही हमारी समस्या का समाधान कर सकता है।


         किंतु शिक्षा में आध्यात्मिकता और वैज्ञानिकता का समावेश तो आध्यात्मिक-वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले शिक्षकों से और शिक्षा से ही तो होगा। नालंदा विश्वविद्यालय में 10000 विद्यार्थियों पर 2000 शिक्षक थे अर्थात् प्रत्येक पांच विद्यार्थी पर एक शिक्षक। और उनका काम सिर्फ पढ़ना और पढ़ाना था।आज कितने शिक्षा संस्थानों में यह अनुपात है और कितने शिक्षण संस्थान सिर्फ पढ़ने और पढ़ाने के काम में लगे हुए हैं?


           शिक्षकों की कमी और गैर शैक्षिक कार्यों में उपलब्ध शिक्षकों के नियोजित किए जाने के कारण भारत में भेड़-मनोवृति बढ़ती जा रही है। बाबा साहब कहा करते थे कि शिक्षा शेरनी का वह दूध है,जो इसको पिएगा वह दहाड़ेगा। लेकिन आज की शिक्षा व्यवस्था शेरनी का दूध तो दूर भेड़ का दूध भी नहीं देती जिसके कारण भेड़ की तरह लसर-पसर कर चलने वाली तथा रिरियाने-मिमियाने वाली एक कमजोर पीढ़ी पैदा हो रही है। अपने पर भरोसा खो देने वाली ऐसी पीढ़ी के कारण ही कहीं पर भी भीड़ जुट जाती है और फिर भगदड़ में होने वाली मौतों के मातम में पूरा देश डूब जाता है।


          जब तक जनसंख्या नियंत्रण की इच्छा शक्ति और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की संकल्प शक्ति भारत में नहीं जगती तब तक भेड़-मनोवृति के कारण भीड़ जुटती रहेगी और भगदड़ में मौतें होती रहेगी।


'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹