🙏संस्कृत दिवस और रक्षाबंधन पर्व की शुभकामना🙏


संवाद


'संस्कृत से सम्यक-दर्शन'


आधुनिकतम युग में प्राचीनतम भाषा संस्कृत का क्या महत्त्व है, यह प्रश्न सबके मन-मस्तिष्क में उठता है। भाषा तो महज एक माध्यम होती है जो कुछ स्थान की दूरी पर बदलती रहती है।'चार कोस पर पानी बदले,आठ कोस पर बानी'-यह भाषा विज्ञान का सर्वमान्य सिद्धांत है। फिर भी किसी भाषा में कुछ ऐसे शाश्वत सत्य अभिव्यक्त हुए हैं,जिनकी जरूरत हर देश और हर काल में सदा रहेगी।नित्य परिवर्तनशील इस अनित्य जगत में शाश्वत आत्मा या सर्वव्यापी चेतना की आराधना के कारण संस्कृत देववाणी बन गई।


         संस्कृत भाषा का पहला विषय दर्शन था और आज भी किसी भी विषय में जो सर्वोच्च डिग्री पीएचडी की दी जाती है, उसका मतलब है-'डॉक्टरेट इन फिलोसोफी'. संस्कृत के ऋषियों ने दर्शन को सबसे ज्यादा महत्त्व दिया। 'जैसी दृष्टि,वैसी सृष्टि' कहावत सबसे ज्यादा प्रचलित कहावतों में से एक इसलिए है कि जीवन के सबसे बड़े सत्य को व्यक्त करती है। दर्शन किसी भी विषय के मूल में जाकर समस्या का समाधान ढूंढने का प्रयास करता है।आज दर्शन विषय उपेक्षित कर दिया गया है। सम्यक्- दर्शन के अभाव में जीवन और जगत की आज बहुत सारी समस्याएं विकराल रुप लेते जा रही हैं।


        सुबह समाचारपत्र खोलते ही व्यभिचार,भ्रष्टाचार और प्रकृति के साथ अनाचार की खबरों से पेपर भरा हुआ रहता है। व्यभिचार के कारण परिवार की मूल इकाई पति-पत्नी का संबंध आज गहरे संकट में है। जिसका परिणाम 'लिव इन रिलेशन' के रूप में सामने आ रहा है। दांपत्य जैसे पवित्र बंधन को व्याभिचार ने तार-तार कर दिया है।


           भ्रष्टाचार के कारण सामाजिक व्यवस्था का ताना-बाना बिगड़ गया है। 'राम नाम जपना,पराया माल अपना' जनजीवन का मूल मंत्र बन गया है। धन जब संबंधों का मूल आधार बन जाए, तब जीवन व्यापार हो जाता है।


           प्रकृति के साथ मानव का संबंध कुछ ऐसा निर्मित हुआ है कि दोनों एक दूसरे को निपटाने में लगे हुए हैं। देवभूमि हिमाचल और उत्तराखंड में पहाड़ नदियों की तरह बहने लगे हैं। कहीं अतिसूखा तो कहीं अतिवृष्टि, कहीं अतिताप तो कहीं अतिशीत से मानव का अस्तित्व संकट में पड़ गया है।


         इन तीनों प्रमुख समस्याओं के समाधान की दृष्टि संस्कृत का ऋषि देता है-


"मातृवत् परदारेषु, परद्रव्येषु लोष्ठवत्।


आत्मवत् सर्वभूतेषु, यः पश्यति सः पण्डितः।।"


व्यभिचार का मूल कारण व्यक्ति की कामुक दृष्टि है। पराई स्त्री में माता के समान देखने की दृष्टि हो तो व्यभिचार घटित नहीं हो सकता। व्यक्तित्व की सबसे गहरी परत भाव है। भाव शुद्धि से वासना उपासना बन जाती है।


            भ्रष्टाचार के मूल में वस्तु में सुख खोजने की वृत्ति है। जो प्राप्त है, वह पर्याप्त है; ऐसा संस्कृत के ऋषि सोचा करते थे। तभी उन्होंने कहा कि दूसरे के धन को मिट्टी के ढेर के समान समझना चाहिए। जिस किसी को भी आत्मानंद न मिला हो, वह वस्तु में आनंद की खोज में पागल हो जाता है।


     प्रकृति के साथ साहचर्य की जगह संघर्ष की वृत्ति इसीलिए पैदा हुई कि 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' के मंत्र को हमने भुला दिया। सभी प्राणियों में स्वयं की आत्मा को देखना चाहिए , ऐसा कहनेवाले संस्कृत के ऋषियों ने धरती को माता कहा और आकाश को पिता कहा क्योंकि उन्हें सिर्फ मानवों में ही नहीं बल्कि जीव-जंतु से लेकर पेड़-पौधों में भी उसी चेतना के दर्शन हुए। आज विज्ञान भी यह मानता है कि पदार्थ में भी चेतना है जबकि हजारों बरस पहले संस्कृत के ऋषियों ने मूल तत्त्व चेतना को माना।


'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹