🙏स्वतंत्रता दिवस की शुभकामना🙏


संवाद


"'स्व' को जाने बिना कैसा 'तंत्र'"


परतंत्रता की बेड़ियों में कोई भी जीना नहीं चाहता किंतु स्वतंत्रता मिलते ही स्व से अनजान होने के कारण व्यक्ति अपना सम्यक तंत्र विकसित नहीं कर पाता,अतः स्वच्छंदता की ओर बढ़ जाता है। भारत के साथ यही हुआ। भारतीय ऋषियों ने स्वबोध पर सबसे ज्यादा जोर दिया था। इसलिए 'मैं कौन हूं?' यह प्रश्न भारतीय संस्कृति में जीवन का सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न था।


          व्यक्तित्व की तीन परतें हैं-तन,मन और आत्मन्।अधिकांश लोग स्वयं को तन और मन समझ बैठते हैं। परिणामस्वरूप शरीर को सजाने और मन की इच्छाओं को पूरा करने में पूरा जीवन लगा देते हैं। आत्मा की खोज का तो उन्हें भान भी नहीं होता। लेकिन भारतीय मनीषा कहती हैं-


'आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो..'


अर्थात् आत्मा ही देखने योग्य, सुनने योग्य,मनन करने योग्य और ध्यान करने योग्य है।


         स्वाधीनता,स्वतंत्रता और स्वच्छंदता इन तीनों शब्दों में एक सामान्य 'स्व' शब्द आया है। स्व का अर्थ यदि आत्मा हो तो मानव महात्मा बन जाता है, अन्यथा दुष्टात्मा-


मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम् ।


मनस्यन्यत् वचस्यन्यत् कर्मण्यन्यत् दुरात्मनाम् ॥


दूसरे शब्दों में कहें तो मन,वचन,कर्म की एकता आत्मज्ञान के बिना नहीं आती। स्वतंत्रता की प्राप्ति में सबसे बड़ी बाधा आज मन,वचन और कर्म की एकता का न होना है।


        स्वाधीनता संग्राम के समय भी स्वामी विवेकानंद जैसे पुनर्जागरण के पुरोधाओं का जोर आत्मज्ञान पर था। इसलिए शिक्षा की उनकी परिभाषा थी कि व्यक्ति के अंदर जो अंतर्निहित पूर्णता है,उसको अभिव्यक्त करने का नाम ही शिक्षा है। दूसरे शब्दों में कहें तो स्वयं को जान लेना ही शिक्षा का उद्देश्य है।


             राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में भारतीय ज्ञान परंपरा पर जोर इसलिए दिया जा रहा है कि मैकाले की शिक्षा नीति के प्रभाव में 'स्व' का हमारा बोध गलत हो गया है। भारतीय गुरुकुल प्रणाली में शिष्य गुरु के पास उस 'स्व' की खोज में जाता था और उस विद्या को प्राप्त करने जाता था जिससे मुक्ति मिले-'सा विद्या या विमुक्तये' क्योंकि आत्मा का स्वभाव ही मुक्ति है।


         आजादी,स्वतंत्रता और मुक्ति जैसे शब्दों का प्रयोग हम आमतौर पर समान अर्थ में कर देते हैं। किंतु आजादी और स्वतंत्रता बाहरी-बंधनों से छुटकारे का प्रयास है जबकि मुक्ति आंतरिक-बंधन काम,क्रोध,लोभ इत्यादि से छुटकारे का प्रयास है।


         78 वर्ष हो गए हमें स्वतंत्रता का ध्वज फहराते हुए और स्वतंत्रता दिवस मनाते हुए किंतु हमारी शिक्षा व्यवस्था की दशा और दिशा ऐसी है कि सभी के लिए इस शिक्षा से न पर (पदार्थ)का बोध हुआ और न स्व(आत्मा) का। दूसरे शब्दों में कहें तो सर्वजन हिताय सर्वजन कल्याणाय न हमें अविद्या (skill) दिया गया और न विद्या (liberation)। अविद्या की यदि प्राप्ति होती तो आजीविका सबके लिए सुलभ होती और विद्या की यदि प्राप्ति होती तो मुक्ति।   


                 स्किल के अभाव में डिग्रीधारी बेरोजगारों की फौज करोड़ों में है और विद्या के अभाव में बंधन इतना गहरा हो गया है कि हमारे  शिक्षा-संस्थान अवसाद और आत्महत्या के मुख्य केंद्र बन रहे हैं। 


         इसलिए स्वतंत्रता को विदेशी परंपरा की अपेक्षा भारतीय परंपरा की दृष्टि से पुनर्परिभाषित करने की जरूरत है। भारतीय परंपरा में स्वतंत्रता का मतलब होता है- आत्मा का तंत्र हो। इस जीवनरूपीरथ की बागडोर यदि आत्मा के पास हो तो स्वतंत्रता और मुक्ति रूपी मंजिल हर एक को अवश्य उपलब्ध होगी।


'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹