🙏गणेश चतुर्थी की शुभकामना🙏


संवाद


'गणेशमंडप विद्यामंडप बने'


अक्षर के देवता गणेश के उत्सव में भारत संलग्न है।युवक हमारे मोहल्ले में जिस उत्साह के साथ मंडप सजा रहे हैं और जितना उमंग से चंदा इकट्ठा कर रहे हैं; वह उत्साह और उमंग पढ़ाई के प्रति उनका दिखाई नहीं देता। अर्थात् गणेश जी की मूर्ति अथवा उनके 'तन' को स्थापित करने में ही इनकी रूचि है किंतु गणेश जी के मन-आत्मन् में नहीं।


'भा' का अर्थ होता है ज्ञान और 'रत' का अर्थ होता है लीन। ज्ञान में लीन ऋषियों ने अक्षर के देवता गणेश की साकार प्रतिमा की सृष्टि जन-जन में अक्षर का महत्व स्थापित करने के लिए की थी। गणेश जी के नाम के साथ विद्यारंभ संस्कार की परंपरा भी शुरू की थी। 'ॐ गणेशाय नमः' मंत्र से विद्या और बुद्धि श्रेष्ठता की ओर गति करती हैं।


'देखे को अनदेखा कर दे , अनदेखे को देखा


क्षर लिख-लिख तू रहा निरक्षर,अक्षर सदा अलेखा।'


भारतीय संस्कृति की गहरी दृष्टि कहती है कि अक्षर तो उसे कहते हैं जिसका कभी नाश नहीं होता है-'न क्षरति  इति अक्षर:‌'। दूसरे शब्दों में कहें तो अक्षर के देवता गणेश शाश्वत सत्य है। अक्षर या विद्या की आराधना से जो हमारी चेतना बनती है, वह कभी मरती नहीं,अगले जन्म में साथ में चली जाती है।


          उस गणेश उत्सव में दस दिन भारत डूबा रहता है-गणेश चतुर्थी से गणेश चतुर्दशी तक। आश्चर्य की बात है कि फिर भी भारत के विद्यालय,महाविद्यालय या विश्वविद्यालय पतन की ओर अग्रसर है। बड़ी डिग्री लेने वाले और विद्या वाचस्पति की उपाधि पाने वाले की भी जब विद्या अशुद्ध हो जाए और उसकी बुद्धि निम्नगामी हो जाए तो इसका मतलब है गणेश की आराधना करना हमें नहीं आया।जितने उत्साह के साथ गणेश मंडपों को सजाया जाता है और गणेश की प्रतिमा को बिठाकर पूजा जाता है, उतने उत्साह के साथ गणेश मंडप में यदि अक्षर की आराधना की जाती तो भारत कुछ और होता।


राष्ट्रवाद की चेतना को जगाने के लिए लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने 1893 में गणेश उत्सव की परंपरा को एक नया स्वरूप दिया। उनके द्वारा गणेश मंडपों में व्याख्यान का आयोजन किया गया, अध्ययन-अध्यापन का माहौल बनाया गया और चिंतन-मनन की संस्कृति विकसित की गई। परिणाम यह हुआ कि धर्म और पूजापाठ के नाम पर भारतीय इकट्ठे होने लगे और सत्साहित्य को पढ़ने-पढ़ाने लगे।   


                महाराष्ट्र से प्रारंभ हुआ गणेश मंडपों का यह स्वरूप देश के अन्य भागों में बढ़ता गया। लोगों को स्वाधीनता संग्राम हेतु प्रशिक्षित करने के लिए तथा राष्ट्रीय चेतना को जगाने के लिए गणेश-मंडप किसी विद्या-मंडप  के समान लोकप्रिय हो गया।


            अक्षर के देवता गणेश की वैसी आराधना और विद्या बुद्धि विशारद विनायक की वैसी अर्चना आज शिक्षा-संस्थानों में भी नहीं दिखाई देती। जो बाल गणेश वेदव्यास के द्वारा उच्चारित महाभारत को अनथक लिपिबद्ध करते गए और इतना सूक्ष्म और व्यापक दृष्टि वाला ग्रंथ हमें दे गए, उन देवाधिदेव गणेश के भक्त आज शिक्षकों से ही नहीं पुस्तकों से भी दूर हो चुके हैं। हमारे ऋषि कहते हैं-


'पुस्तक पठितम् नाधीतम् गुरु सन्निधौ


सभामध्ये न शोभन्ते जारगर्भा इव स्त्रिय:।'


अर्थात् पुस्तक तो पढ़ा किंतु गुरु के सान्निध्य में नहीं पढ़ा तो उसकी विद्या सभा में शोभित नहीं होती जिस प्रकार बिना विवाह के बच्चा समाज में शोभित नहीं होता।


            आज बांसवाड़ा का अधिकांश विद्यार्थी तो गुरु से ही नहीं बल्कि पुस्तकों से भी इतनी दूर जा चुका है कि वह कहां शोभा पाएगा, यह सबसे बड़ा चिंता का विषय है।


'उजाले इस कदर बेनूर क्यूं हैं,


किताबें जिंदगी से दूर क्यूं हैं?'


               कपड़ों से, मोबाइल से और सौंदर्य प्रसाधनों से अपनी जिंदगी को चमकाने की कोशिश करने वाली आज की युवा पीढ़ी को मालूम होना चाहिए कि अक्षर के देवता गणेश की उपासना से और विद्या बुद्धि विशारद विनायक की आराधना से वह अंतरप्रकाश उत्पन्न होता है जिससे अंतर्जगत और बहिर्जगत दोनों प्रकाशित हो जाता है।


              तिलक के आह्वान पर गणेश मंडपों में पहले राष्ट्रीय चेतना का स्वर गूंजा और फिर स्वदेशी आंदोलन का शंखनाद हुआ जिसका परिणाम यह हुआ कि महात्मा गांधी को ऐसे लाखों करोड़ों सद्गुणी कार्यकर्ता मिल गए जो ब्रिटिशों की न लाठियों से डरते थे और न जेल से। गणेश कृपा से विद्या और बुद्धि के जगने पर ही सत्य-प्रेम-अहिंसा का महात्मा-मंत्र जन-जन में अनुकरणीय और अनुसरणीय बन पाया।


             आओ गणेश मंडपों को फिर से लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के सपनों के अनुसार बनाएं जहां अक्षर की आराधना हो, श्रेष्ठ विद्या और बुद्धि की उपासना हो।


'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹