🙏हिंदी दिवस की शुभकामना🙏


संवाद


'हिंदीभाषा समृद्ध तो हिंदीभाषी दरिद्र कैसे'


भाषा समृद्ध होती है पढ़ने की संस्कृति और सृजन की प्रवृत्ति से। हिंदी भाषा स्वयं में बहुत समृद्ध है किंतु हिंदी भाषी लोगों की संख्या जितनी बढ़ी है, पढ़ने की संस्कृति और सृजन करने की प्रवृत्ति उनमें उतनी नहीं बढ़ी है। तुलसी,सूर,कबीर, प्रेमचंद,प्रसाद,निराला को यदि पासबुक के माध्यम से पढ़ा जाने लगे और वह भी सिर्फ परीक्षा पास होने के लिए पढ़ा जाने लगे तो इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा!


          बांसवाड़ा जैसे जनजातीय क्षेत्र की हिंदी भारत माता की माथे की बिंदी जैसी सुंदर नहीं कहीं जा सकती। पढ़ने से लेकर लिखने तक में जो गिरावट इस क्षेत्र में देखने को मिली है, वह बहुत बड़ी चिंता की बात है। जब विद्यार्थियों के "हींदि दीवस कि सुभकामना/ hendi diwas ki subkamna" जैसे संदेश पढ़ने को मिला तो एक तरफ उनकी भावना और दूसरी तरफ भाषा की अवमानना देखकर मैं आश्चर्य में पड़ गया। काफी देर तक सोचता रहा कि भावना यदि इतनी प्रबल है तो उसकी अभिव्यक्ति अपनी भाषा में इतनी दुर्बल क्यूं है? देवनागरी लिपि वाली हिंदी को रोमन लिपि का सहारा इतना ज्यादा क्यों लेना पड़ रहा है?


             तब एक बात समझ में आई कि हिंदी भाषा के प्रति जज्बात और हालात में इतना बड़ा अंतर इसलिए है कि भाषा के लिए मर मिटने की बात करने वाले भी पढ़ने- पढ़ाने से कोसों दूर जा चुके हैं। जब हम अपनी भाषा से प्रेम करते हैं तो वह प्रेम उस भाषा को पढ़ने और उस भाषा में सृजन करने से प्रगाढ़ होता है। पढ़ने की संस्कृति से मौलिक पुस्तकों की खरीद बढ़ती है जिससे लेखक समृद्ध होता है। जितना ज्यादा पाठक लेखकवर्ग को मिलता है उतना ज्यादा लेखन कार्य प्रोत्साहन पाता है। इससे एक तरफ पाठक में रुचियां परिष्कृत होती हैं तो दूसरी तरफ लेखक में नई-नई कृतियां आविष्कृत होती हैं।


               लेकिन इस जनजातीय क्षेत्र में पढ़ने वाले विद्यार्थी ही नहीं जब पढ़ाने वाले अधिकांश शिक्षक भी स्वाध्याय की प्रवृत्ति और पुस्तकों की संस्कृति को छोड़कर पासबुक का सहारा लेने लगें तो हिंदी भाषा का भविष्य क्या होगा! जिस हिंदी भाषा में भावों की गहराई और विचारों की ऊंचाई ने अपना चरमोत्कर्ष देखा हो, उस हिंदी भाषा के प्रेमियों में भाव और विचार की बढ़ती शून्यता को देखकर आश्चर्य भला किसे नहीं होगा!


'अपने होने का सुबूत और निशां छोड़ती है


रास्ता कोई नदी यूं ही कहां छोड़ती है


नशे में डूबे कोई, कोई जीए, कोई मरे


तीर क्या-क्या तेरी आंखों की कमां छोड़ती है।'


            भाषा भी नदी की तरह होती है जो अपने गौरवमयी अतीत के होते हुए भी संरक्षित-संवर्द्धित नहीं किए जाने पर सूखती चली जाती है। भाषा के नशे में डूब कर दूसरी भाषा को बोलने वाले लोगों पर आक्रमण करने वाले भाषा प्रेमी तो मिल जाते हैं किंतु अपनी भाषा को पढ़कर और नया कुछ सृजन कर उसे आगे बढ़ाने वाले बहुत दुर्लभ हो गए हैं।


'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹