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संवाद


'सोनम वांगचुक का राष्ट्रवाद और गांधीवादी रास्ता'


शिक्षा और पर्यावरण के क्षेत्र में बहुत बड़ा सफल प्रयोग करने वाले लद्दाख के श्री सोनम वांगचुक जन-जन में लोकप्रिय हो चुके हैं और अनगिनत लोगों के आदर्श बन चुके हैं। उनके व्यक्तित्व की प्रेरणा से बनी 'थ्री ईडियट्स' फिल्म ने साधारण जन में उनके असाधारण काम को पहुंचाकर एक राष्ट्रव्यापी जागृति पैदा की है। जो काम शिक्षा और पर्यावरण के क्षेत्र में सरकारें नहीं कर पातीं उनको वास्तविक धरातल पर सफल और सुफल रूप से अमलीजामा पहनाकर उन्होंने अद्भुत काम किया है।


        उनके गांव में कोई स्कूल नहीं था तो 9 वर्ष की उम्र तक उनकी मां ने उन्हें मातृभाषा में शिक्षा दी। बाद में श्रीनगर के स्कूल से पढ़कर उन्होंने इंजीनियरिंग की डिग्री NIT श्रीनगर से ही प्राप्त की और फिर फ्रांस से मिट्टी आधारित वास्तुकला की पढ़ाई की।


            उनके निजी अनुभव ने शिक्षा की उनकी समझ इतनी गहरी बना दी कि 1988 में उन्होंने SECMOL नामक संगठन की लद्दाख में स्थापना की। Students' Educational and Cultural movement of Ladakh का उद्देश्य सरकारी स्कूलों के स्तर में जनभागीदारी से सुधार लाना और पर्यावरण की रक्षा करते हुए वातावरण के अनुकूल शिक्षा देना था। उनकी सोच यह थी कि परमात्मा हर आत्मा में कुछ विशेष प्रतिभा देकर भेजता है। शिक्षा और शिक्षक का काम उस प्रतिभा को पहचानना तथा उसे तराशना है। इसका नतीजा यह हुआ कि जहां के स्कूलों में 90% विद्यार्थी अनुत्तीर्ण हो जाते थे, वहां के स्कूलों से नई-नई प्रतिभाएं निकलने लगीं। उन्होंने किताबों से अधिक वातावरण और जीवन से विद्यार्थियों को सिखाने का नया अभियान शुरू किया। उनके द्वारा शुरू किया गया 'ऑपरेशन न्यू होप' ने सरकारी शिक्षा प्रणाली में कमजोर साबित हुए विद्यार्थियों को नए कौशल से सुसज्जित कर नई शक्ति में तब्दील कर दिखाया। परिस्थिति और मन:स्थिति के अनुकूल शिक्षा के क्षेत्र में आइस हॉकी जैसे खेल को बढ़ावा देकर उन्होंने युवाओं के आत्मविश्वास को एक नई ऊंचाई दी।'आइस स्तूप' की उनकी तकनीक उनकी वैज्ञानिक सोच और जलवायु संकट के समाधान की गहरी समझ का परिचायक है।


'एक मौज मचल जाए तो तूफां बन जाए


एक फूल अगर चाहे तो गुलिस्तां बन जाए।


एक खून के कतरे में है तासीर इतनी


एक कॉम की तारीख का उनमां बन जाए।।'


         अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय पुरस्कारों ने वांगचुक की प्रतिभा को पहचाना और सराहा है। लद्दाख को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलवाने और छठी अनुसूची में उसे  शामिल करवाने को लेकर उनके द्वारा चलाया जा रहा आंदोलन जब हिंसक हो गया तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।


            अब विचार का विषय यह है कि क्या सोनम वांगचुक गांधीवादी रास्ते से दूर हो गए या उनकी क्रांतिकारी विचारधारा ने उन्हें सरकार से दूर कर दिया?जिस गांधी ने प्रथम विश्वयुद्ध में ब्रिटिशों की सहायता के लिए सैनिक भर्ती करवाई,उसी ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों को राजनीतिक अधिकार देने के बदले दमनकारी 1919 का रौलेट एक्ट कानून दिया।तब उसी गांधी को ब्रिटिशों के विरुद्ध असहयोग आंदोलन शुरू करना पड़ा। अहिंसक तरीके से शुरू किया गया आंदोलन जब चौरीचौरा कांड के बाद हिंसक हुआ तो उसी गांधी ने आंदोलन के चरमोत्कर्ष पर अहिंसा-मूल्य की खातिर आंदोलन को वापस ले लिया।


           ऐसा लगता है कि श्री सोनम वांगचुक के साथ गांधी का इतिहास अपने आप को दोहरा रहा है। उन्होंने भी आंदोलन के हिंसक होते ही अपना अनशन समाप्त कर दिया।जो व्यक्तित्व इतना सृजनशील और संवेदनशील  हो, उस व्यक्तित्व पर विध्वंसकारी और देशद्रोही होने का आरोप किसी के भी गले नहीं उतर रहा।


           जन-आंदोलन की प्रकृति ऐसी होती है कि नेतृत्व जिस ऊंचाई पर होता है, अनुयायियों का धैर्य और आत्मबल उतनी ऊंचाई का नहीं होता। फिर नेता को अनुयायियों के अधैर्य और असहनशीलता का खामियाजा भुगतना पड़ता है।


               लद्दाख के लिए श्री सोनम वांगचुक की मांग वे ही मांग हैं जिसका वादा किया जा चुका है। फिर भी आंदोलन के दौरान  हुई आगजनी और हिंसा ने आंदोलन पर प्रश्नचिन्ह खड़े कर दिए हैं। उनके अहिंसक आंदोलन को समय रहते सुन लिया जाता तो हिंसक रास्ते आख्तियार करने वाले को मौका ही नहीं मिलता। लेकिन इसी मोड़ पर महात्मा गांधी की याद आती है जिन्होंने कितने लंबे और कितने अहिंसक आंदोलनों को बरसों-बरसों तक चलाए रखा। उन्हें मालूम था कि आंदोलन की ऊर्जा को कितने दिनों तक बनाए रखना है और कितने दिनों के बाद उसे सामाजिक सुधार की दिशा में लगा देना है।सत्य,प्रेम,अहिंसा के रास्ते पर अपने अनुयायियों को चलाने के लिए गांधी ने अनेक अवसरों पर आत्मशुद्धि और आत्मपरिष्कार के लिए उपवास,अनशन इत्यादि अनेक प्रकार के उपाय किए। सत्याग्रह के रास्ते पर चलने के लिए


गांधी की शर्त होती थी कि अनुयायी किसी भी प्रकार की हिंसा का मन,वचन और कर्म से समर्थन नहीं करेंगे।


          राजनीतिक सुधार के पूर्व सामाजिक सुधार की गांधी की रणनीति ने बाल से लेकर वृद्ध तक और नर से लेकर नारी तक को स्वतंत्रता आंदोलन से जोड़ दिया।  गांधी का प्रशिक्षण और प्रभाव ऐसा था कि सत्य,प्रेम,अहिंसा के मार्ग पर उनके साथ चलने के लिए बहुत बड़ी संख्या में लोग तैयार हो गए। गांधी का व्यक्तित्व ऐसा था कि जनमानस पर कांग्रेस से भी ज्यादा प्रभाव गांधी का था और गांधीवादियों की श्रद्धा उनमें ऐसी थी कि जो किसी भी परिस्थिति में डिगती नहीं थी। मन, वचन,कर्म की अद्भुत एकता ने गांधी को मोहन से महात्मा बना दिया था।


           श्रीलंका,बांग्लादेश के बाद विशेष रूप से नेपाल के जेन जी के आंदोलन ने आगजनी और हिंसा का जो रास्ता आख्तियार किया है, वह आत्मघाती है। राष्ट्र की अर्जित संपत्ति को आग लगाना बुध्दिहीनता ही नहीं, आत्महीनता भी है। ऐसे में गांधीवादी रास्ते की प्रासंगिकता और बढ़ जाती है।युवाओं के विद्रोह की आग को बुझने नहीं देने का जितना बड़ा दायित्व नेतृत्व पर होता है, उतना ही बड़ा दायित्व उस आग से रोशनी पैदा करने का भी होता है। गांधी ने व्यक्तिगत और सार्वजनिक दोनों ही स्तर पर सामाजिक सुधार तथा राजनीतिक सुधार की आग को पैदा भी किया और उससे किसी को जलाए बिना एक ऐसी रोशनी पैदा की जिससे राष्ट्र रौशन हो गया। प्रतिभा के धनी श्री सोनम वांगचुक के नेतृत्व की यह बड़ी कसौटी होगी कि वे विद्रोह की आग को रोशनी में तब्दील कर दें-


'चारा नहीं कोई जलते रहने के सिवा


सांचे में फना के ढलते रहने के सिवा


ऐ शमा! तेरी हयाते फानी क्या है


झोंका खाने और संभलते रहने के सिवा।'


'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹