शिक्षा और शिक्षक असमंजस में
October 6, 2025🙏'विश्व शिक्षक दिवस' के आलोक में भारतीय शिक्षक पर एक नजर 🙏
संवाद
"शिक्षा और शिक्षक असमंजस में"
'विश्व शिक्षक दिवस' के दिन एक शिक्षक के रूप में भारतीय संस्कृति में शिक्षक को दिए गए गौरवशाली स्थान को याद कर स्वयं को गौरवान्वित महसूस कर रहा हूं किंतु साथ ही शिक्षक की आज की दयनीय दशा को देखकर बहुत अवमानित भी महसूस कर रहा हूं। शिक्षा के कारण भारतीय संस्कृति विश्वगुरु के पद पर अधिष्ठित हुई थी किंतु आज की शिक्षा की दुर्दशा को देखकर ऐसा लगता है कि शिक्षक मार्गदर्शक की जगह आदेशपालक बन गया है।
शिष्य-गुरु संवाद केंद्र के माध्यम से सतत रूप से विद्यार्थियों के साथ ही शिक्षकों के साथ भी विशेष रूप से शिक्षा विषय पर ही मेरा व्यक्तिगत संवाद चल रहा है। इस मुकाम पर दुष्यंत साहब का शेर याद आ रहा है-
'मैं बहुत कुछ सोचता रहता हूं पर कहता नहीं
बोलना भी है मना,सच बोलना तो दरकिनार
इस सिरे से उस सिरे तक सब शरीके-जुर्म है
आदमी या तो जमानत पर रिहा है या फरार।'
मैं कहना यह चाह रहा हूं कि वृक्ष अपने फल से जाना जाता है। आज विद्यार्थी रूपी फल को देखकर लगता है कि शिक्षक रूपी वृक्ष अच्छा नहीं है। लेकिन शिक्षकों में भी कुछ जिंदा शिक्षक जब दिखाई देते हैं तो मैं निराशा से बाहर आ जाता हूं। स्वयं मेरे जीवन की शिक्षा का अनुभव यह बता रहा है कि मेरे शिक्षकों ने और सीनियर्स ने विषय को सरल बनाकर मुझे पढ़ाने में और समझाने में बहुत मदद की जिसके कारण मैं खेल के जीवन से पढ़ाई के जीवन में अच्छा कर गया। इस यात्रा में मेरी जिज्ञासा का जितना हाथ था ,उससे भी ज्यादा हाथ मेरी जिज्ञासा को समझ कर उसे राह दिखाने वाले आदरणीय लोगों का था। उस समय शिक्षक और विद्यार्थी का संबंध पढ़ने और पढ़ाने का ज्यादा था।
उस शिक्षा की आज की बदली हुई परिस्थिति में पढ़ने-पढ़ाने का संबंध सूचना तैयार करने और भेजने के संबंध में मुख्य रूप से परिवर्तित हो गया है। सबसे आश्चर्य की बात है कि सारे शिक्षक दबी आवाज में इस सत्य को स्वीकार कर रहे हैं कि विद्यार्थी क्लास में नहीं आते हैं और पढ़ना नहीं चाह रहे हैं; फिर भी सारे विद्यार्थी अच्छे नंबरों से पास किए जा रहे हैं। लेकिन किसी भी बड़े मीटिंग में बड़े अधिकारियों के समक्ष इस सत्य को कोई भी बोलने का साहस नहीं कर पा रहा है कि गैर शैक्षिक कार्यों में शिक्षकों को नियोजित कर देना इस राष्ट्र-निर्माता के काम में सबसे बड़ी बाधा है।
सरकार सूचनाओं से संतुष्ट है और चुनाव करवाने से लेकर समाज-कल्याण कार्यक्रमों में शिक्षकों को जोतकर अपनी उपलब्धियां भी गिना देती हैं लेकिन डिग्रीधारी अकुशल बेरोजगारों की फौज बता रही है कि इस सोच में भारी गलती है।
शिक्षक और विद्यार्थी का संबंध क्लास में होता है और यह संबंध जितना घनिष्ठ होता जाए उतना ज्यादा शिक्षक के अनुभव और ज्ञान विद्यार्थियों तक पहुंच पाते हैं। कोरोना काल के बाद एक बहुत बड़ा लर्निंग गैप बहुत बड़ी चुनौती बनकर उभरा किंतु नई शिक्षा नीति की क्रियान्विति के बाद चुनौती और भी ज्यादा विकराल हो गई है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के प्रावधान बहुत अच्छे हैं किंतु संसाधनों की कमी के कारण वे प्रावधान वरदान की जगह अभिशाप साबित हो रहे हैं। सेमेस्टर परीक्षा प्रणाली के अंतर्गत लगातार परीक्षाओं के कारण शिक्षा कार्य और पाठ्यक्रम पूरा करने का लक्ष्य बहुत दूर हो गया है।
शिक्षारूपी पुष्प के चार पर्ण होते हैं-शिक्षक,शिक्षार्थी समाज और सरकार। इन चारों के सहयोग से शिक्षा रूपी यज्ञ सफल और सुफल होता है। लेकिन आज शिक्षा रूपी यज्ञ विघ्न-बाधाओं से इतना घिर गया है कि उस यज्ञ से कोई अग्नि प्रज्वलित होती दिखाई नहीं देती बल्कि चारों ओर उठता हुआ धुआं ही धुआं दिखाई देता है।
ऐसे में विश्व शिक्षक दिवस के दिन एक शिक्षक के रूप में श्री सोनम वांगचुक का शिक्षा के क्षेत्र में और पर्यावरण को बचाने के क्षेत्र में किया गया प्रयोग मुझे बहुत बड़ी प्रेरणा दे रहा है। 90% विद्यार्थी जिस शिक्षा व्यवस्था में फेल हो रहे थे,उनके लिए नया विचार लाकर उन्हें जीवन में पास कराने वाले इस शिक्षक के प्रति हृदय आदर से भरा हुआ है।
ऐसा ही प्रयोग शिक्षा के क्षेत्र में बहुत जगह बहुत शिक्षकों के द्वारा किए जाने की जरूरत है। लेकिन इसके लिए शिक्षक को जो स्वायत्तता चाहिए और जो संसाधन चाहिए वह तो सरकार से ही उपलब्ध हो सकता है। प्राचीन भारतीय शिक्षा प्रणाली में शिक्षा समाज के अधीन होती थी, सरकार के अधीन नहीं। क्योंकि शिक्षा के द्वारा एक वैचारिक और सामाजिक व्यक्तित्व समाज को मिलता था जिसका उद्घोष आज भी शिक्षण संस्थानों पर लिखा गया यह वाक्य करता है-'ज्ञानार्थ प्रविश,सेवार्थ गच्छ.' सेवाभाव से संपन्न विद्यार्थी सरकार के लिए भी राज्य में अनुशासन और व्यवस्था को बनाए रखने में बहुत सहयोगी होता था।
विद्यार्थी भी अपनी जिज्ञासा लेकर जीवन को बदलने की इच्छा से शिक्षा-संस्थान में जाते थे। आज के विद्यार्थी की सोच डिग्री पाकर नौकरी हासिल करने की हो गई है जो शिक्षा के मूल उद्देश्य को नष्ट-भ्रष्ट कर रही है।
इन सारी बातों पर सोचते हुए एक शिक्षक 'विश्व शिक्षक दिवस' को किस प्रकार से मनाए और आगे बढ़े; इस विषय पर ही अपनी बात को समाप्त करता हूं क्योंकि मुझे यह प्रतीत हो रहा है कि
'मूरत संवारने में बिगड़ती चली गई
पहले से हो गया है जहां और भी खराब
रौशन हुए च़राग तो आंखें नहीं रही
अंधों को रोशनी का गुमां और भी खराब।'
'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹