धूप ढल गई
October 12, 2025🙏किशोरावस्था में जिनके साथ क्रिकेट खेला था उनके व्हाट्सएप ग्रुप में कई युग के बाद अचानक जोड़ा गया तो उनके वे चेहरे यादकर और आज के चेहरे देखकर जो अनुभूति हुई उसे शब्दों में पिरोना मुश्किल है लेकिन उस अनुभूति को व्यक्त किए बिना रह पाना भी मुश्किल है🙏
संवाद
"धूप ढल गई"
गंगा किनारे किशोरावस्था में जिन साथियों के साथ क्रिकेट की दीवानगी शुरू हुई उनमें से एक साथी रणजी ट्रॉफी प्लेयर का देहावसान हो गया।शोक संवेदना व्यक्त करने हेतु उनके छोटे भाई ईस्ट जोन प्लेयर से बात हुई। अपने बड़े भाई के सपने को पूरा करने हेतु छोटे भाई ने एक व्हाट्सएप ग्रुप बनाया और उसमें मुझे जोड़ लिया। फिर 'पटना क्रिकेट लीजेंड्स' के व्हाट्सएप ग्रुप में भी एक साथी ने मुझे जोड़ दिया।
क्रिकेटरों के व्हाट्सएप ग्रुप से जुड़ते ही फिर से उस किशोरावस्था और युवावस्था की दुनिया में पहुंच गया जब हम सभी दिन रात या तो क्रिकेट खेलते बिताते थे या मैच जीतने की योजना बनाते। एक मजेदार वाकया ध्यान में आ रहा है कि विवियन रिचर्ड्स के बारे में हम सभी ने एक खेल-पत्रिका में पढ़ा कि "कभी उन्होंने बैट छोड़कर किताब नहीं छुआ फिर भी धन और प्रतिष्ठा सब पा गए।" हम सभी साथियों ने खेल-बुद्धि से इसकी व्याख्या करके किताब छोड़ दिया और दिन रात बैट पकड़ कर विवियन रिचर्ड्स बनने का सपना देखने लगे।
कुछ दिनों में ही मेरे बड़े भाई साहब इतने चिंतित हो गए कि उन्होंने स्पष्ट चेतावनी मुझे दी कि फेल होते ही क्रिकेट खेलना छुड़ा दूंगा। इस डर से मुझे फिर से थोड़ा बहुत किताब पकड़ना पड़ा। लेकिन मेरे अधिकांश साथी सोते-जागते, उठते-बैठते क्रिकेट के ही सपने देखते थे।
उस समय पटना कॉलेज और कॉमर्स कॉलेज का मैच हम लोगों के लिए बहुत प्रेरणास्पद होता था क्योंकि हम सभी के अधिकांश पसंदीदा स्टार खिलाड़ी इन दोनों टीमों में थे। याद है कि उनका मैच देखने के लिए स्कूल छोड़कर और क्लास छोड़कर कई बार गए और घर पर डांट भी खाए। क्रिकेट की उस दीवानगी के बारे में अब जब सोचता हूं तो किसी शायर की पंक्तियां याद आ जाती है-
'दीवानगी से काम लिया और पी गए
बेइख्तियार जाम लिया और पी गए।
याद आ गई किसी की निगाहें झुकी हुई
नजरों से इक सलाम लिया और पी गए।।
दैरो हरम के नाम पर पीना हराम था
हमने तुम्हारा नाम लिया और पी गए।।।'
क्रिकेट के इन दीवानों में से कुछ ने रणजी ट्रॉफी, दिलीप ट्रॉफी और टेस्ट क्रिकेट में भी अपनी बहुत अच्छी पहचान बनाई। मेरे बाल-सखा और पटना कॉलेज में मेरे साथ क्रिकेट पर एडमिशन पाने वाले मेरे साथी ने रांची के कोल माइंस में क्रिकेट की बदौलत नौकरी पाई, जहां उनकी कैप्टेंसी में प्रसिद्ध क्रिकेटर धोनी कुछ वर्ष खेले और सितारे के रूप में उभरे।'एमएस धोनी: द अनटोल्ड स्टोरी' फिल्म जब मैं देख रहा था तो ऐसा लग रहा था कि अपने क्रिकेट साथियों की जिंदगी को देख रहा हूं।
क्रिकेट के इन दीवानों से पढ़ाई के दीवानों के बीच में मुझे बैन लगने के कारण आना पड़ा। मेरे एक आदर्श क्रिकेटर ने ही मुझे समझाया था कि क्रिकेट के चक्कर में पढ़ाई मत छोड़ना क्योंकि क्रिकेट से कमाई का रास्ता बहुत मुश्किल है। क्रिकेट छोड़ना बहुत मुश्किल था किंतु नौकरी की तलाश में दिन-रात की पढ़ाई मजबूरी हो गई। दिन-रात क्रिकेट खेलने वाले साथियों की तरह ही दिन-रात किताब पढ़ने वाले फरिश्तों से मुलाकात हो गई और उनकी सत्संगति से कॉलेज में नौकरी पा गया।
कभी-कभी जीवन सपने की तरह लगता है और सपना भी बेतरतीब। बैट पकड़ते-पकड़ते जब कलम पकड़ने की नौकरी में आया तो हरदम एक शेर जेहन में गूंजते रहा-
'उम्र तो गुजरी इश्के-बुता में मोमिन
मरते वक्त क्या खाक मुसलमां होंगे।'
खैर! क्रिकेटरों के व्हाट्सएप ग्रुप में सभी का फोटो देखने लगा और उनकी चौड़ी छाती,मजबूत कंधे ,विशाल बांहु और उड़ती जुल्फें जिनकी चर्चा हम किया करते थे, अब नहीं दिख रहे। जिनकी बातों में एक जोश होता था,उनकी जगह पर बहुत ज्यादा होश दिखाई दे रहा है। किशोरावस्था में जिस रूप में इन सभी को देखा था,वही रूप मेरी आंखों में बसा हुआ है क्योंकि क्रिकेट छोड़ने के बाद इन सभी को देखने के अवसर ही उपलब्ध नहीं हुए। कुछ क्रिकेटर्स तो इस दुनिया से ही अलविदा होने लगे।
अब मैं किंकर्तव्यविमूढ़ हुआ जा रहा हूं। मेरी आंखों में बसे हुए पुराने चेहरे हटते नहीं है और डीपी में लगाए गए उनके नए चेहरे वैसे लगते नहीं है। मैं तो खुद को भूल गया और उन्हीं चेहरों को देखता रहा। तब मुझे अचानक एहसास हुआ कि
'कल जिस दौर खड़ी थी दुनिया,आज नहीं उस ठांव है
जिस आंगन थी धूप सुबह,उस आंगन में अब छांव है।
प्रतिपल नूतन जन्म यहां पर ,प्रतिपल नूतन मृत्यु है
देख आंख मलते मलते ही बदल गया सब गांव है।।'
गंगा किनारे के जीवन का पूर्वार्ध अब माही के किनारे उत्तरार्ध की ओर बढ़ चला है। पता ही नहीं चल रहा कि यह जीवन का सफर कब शुरू हुआ और कब खत्म होने को आ गया...
'नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई
पांव जब तलक उठे कि ज़िंदगी फिसल गई
पात-पात झर गए कि शाख-शाख जल गई
चाह तो निकल सकी न, पर उमर निकल गई।'
इस उम्र के निकल जाने को देखकर एक तरफ निराशा का भाव उठता है किंतु दूसरी तरफ आशा जगती है कि हम सभी फिर जन्म लेंगे, फिर मिलेंगे और क्रिकेट की वही दीवानगी फिर से हमें खेल के मैदान पर ले जाएगी और वही दृश्य दोहराएगी..... तीसरी तरफ द्रष्टा भाव के सधने पर शंकराचार्य के 'भज गोविंदम्' के श्लोक की यह पंक्ति आशा निराशा के पार जाने की याद दिला रही है-
पुनरपि जननं पुनरपि मरणं, पुनरपि जननी जठरे शयनम्
इस संसारे बहुदुस्तारे , कृपया पारे पाहि मुरारे
भज गोविंदं भज गोविंदं , गोविंदं भज मूढमते।
'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹