उच्च नैतिक मूल्यों को जिंदा करने वाले कलाकार
October 16, 2025🙏महाभारत के कर्ण की दमदार भूमिका निभाने वाले पंकज धीर साहब को विनम्र श्रद्धांजलि🙏
संवाद
'उच्च नैतिक मूल्यों को जिंदा करने वाले कलाकार'
पंकज धीर जिन्होंने महाभारत में कर्ण की भूमिका का निर्वाह किया,अब दुनिया में नहीं रहे। पंकज धीर से मेरा परिचय गहरा नहीं है; किंतु महाभारत के पात्र कर्ण के बारे में राष्ट्रकवि दिनकर जी की रश्मिरथी में जो लिखा है उसे पढ़ने के बाद और महाभारत सीरियल के कर्ण को देखने के बाद कर्ण की भूमिका निभाने वाले इस पात्र (पंकज धीर)और उनके चेहरे से बहुत लगाव हो गया था। इस कारण से उनके प्रति विनम्र श्रद्धांजलि मैं व्यक्त करता हूं।पंकज धीर दुनिया की नजरों में कर्ण के रूप में ही देखे जाने लगे थे। यहां तक कि महाभारत धारावाहिक में अर्जुन के हाथों उनके मारे जाने पर उस समय एक गांव विशेष इसे वास्तविक मानकर गम में डूब गया था।
असली कलाकार की पहचान यही होती है कि वह अपनी भूमिका को इतना जिंदा बना दे कि लोग उसे उसी रूप में देखने लगें। ईश्वरचंद्र विद्यासागर एक नाटक देख रहे थे जिसमें एक पात्र किसी औरत का चीरहरण कर रहा था। चीरहरण करने की उसकी कलाकारी इतनी दमदार थी कि विद्यासागर धोखा खा गए कि वे नाटक देख रहे हैं। उन्होंने जूता उठाकर उस कलाकार पर दे मारा। सारी सभा स्तब्ध रह गई,नाटक का मंचन रोक दिया गया और विद्यासागर की तरफ हर कोई प्रश्नवाचक भाव से देख रहा था कि इतने ज्ञानी व्यक्ति ने ऐसी गलती क्यों की। किंतु जिस कलाकार पर उन्होंने जूता फेंका था, उसने उनका जूता अपने पास रख लिया और उसे लौटाने से इनकार कर दिया। उसने कहा कि मेरी कला का इससे बड़ा पुरस्कार और क्या हो सकता है कि विद्यासागर जैसा ज्ञानी व्यक्ति नाटक को भी वास्तविक मानकर अपना होश खो बैठे।
15 अक्टूबर एक तरफ भारत रत्न कलाम साहब का जन्मदिवस है तो दूसरी तरफ उसी दिन पंकज धीर ने दुनिया को अलविदा कहा। कलाम साहब से एक बार पूछा गया था कि महाभारत का कौन सा पात्र आपको सबसे अधिक प्रिय है। उनका जवाब था- 'विदुर' क्योंकि आवाज उठाए जाने वाले हर मौके पर महामंत्री विदुर ने अपनी आवाज उठाई थी। सत्य कहने का ऐसा साहस दूसरे किसी पात्र ने उतना नहीं दिखाया।
यही प्रश्न मुझसे पूछा जाए तो मेरा जवाब होगा कि महाभारत का मेरा सबसे प्रिय पात्र कर्ण है।क्योंकि मूल्यविहीन दुनिया में मूल्यों की खातिर आजीवन कुर्बानी देने वाले और अंत में अपने मित्र दुर्योधन के लिए जान देने वाले इस पात्र ने तथाकथित निम्न-कुल में पले-बढ़े होने के बावजूद अपनी प्रतिभा की बदौलत अपने स्वाभिमान से बिना कोई समझौता किए अपना जीवन यज्ञ पूरा किया।
पूरब और पश्चिम की दृष्टि में एक बहुत बड़ा भेद यह है कि पूरब ने कभी मूल्यविहीनता को मान्यता नहीं दी जबकि पश्चिम ने फ्रायड के बाद मूल्यविहीनता को यह कहकर वैचारिक आधार दे दिया कि वासना,लोभ इत्यादि मानव का सहज स्वभाव है।
इसलिए कर्ण जब विराट स्वरूप दिखाने वाले कृष्ण के द्वारा दिए गए पांडव सेना में आने के आग्रह को ठुकरा देता है तो सामान्य मानव के स्वभाव का अतिक्रमण कर जाता है। मैत्री मूल्य की खातिर यह जानते हुए भी कि जिस तरफ कृष्ण है, उसी तरफ जय है; कर्ण ने दुर्योधन का साथ छोड़ने से इनकार कर दिया तब कृष्ण भी कह उठते हैं-
'शत बार वीर शत बार धन्य,तुझसा न मित्र कोई अनन्य
कुरुपति का ही तू नहीं प्राण, नरता का है भूषण महान।'
इसी प्रकार से विप्रवेष धरकर आए इंद्र ने जब छल से कवच-कुंडल मांगा तब भी दान-वचन का मूल्य निभाते हुए उसने अपना कवच-कुंडल दान कर दिया जिसे देखकर स्वयं इंद्र भी शर्मिंदा हो गए।
जब माता कुंती महाभारत युद्ध के प्रारंभ के समय कर्ण को सत्य बताने आई और उसे दुर्योधन से दूर करना चाहा तो उसने मैत्री मूल्य की खातिर मां को भी इंकार कर दिया। परंतु दानशीलता के कारण अर्जुन को छोड़कर अन्य पांडवों को अपनी तरफ से न मारने का आश्वासन दिया।
अर्जुन को मारने के लिए जब सर्पराज ने कर्ण का सहारा मांगा तो महारथी ने युद्ध में भी गलत उपायों से अपने प्रतिद्वंद्वी को मारना उचित नहीं समझा। यहां तक कि सूर्यास्त होते ही उसने अंतिम प्राणघाती बाण नि:शस्त्र हो चुके अर्जुन पर चलाने से रोक दिया क्योंकि भीष्म पितामह ने युद्ध के नियम जो बनाए थे वह उसके ध्यान में था।
युद्ध के दौरान भी माता को दिए गए वचन ध्यान में रखने के कारण उसने युधिष्ठिर,भीम,नकुल,सहदेव को अनेक बार पकड़कर भी प्राणदान दे दिए जिसे देखकर उसका सारथी शल्य भी कह उठता है-
'रण का विचित्र यह खेल मुझे तो समझ नहीं कुछ पड़ता है
कायर!अवश्य कर याद पार्थ की तू मन ही मन डरता है।'
तब कर्ण का जवाब दिनकर जी के शब्दों में अद्भुत है-
'समझोगे नहीं शल्य इसको, यह करतब नादानों का है
यह खेल जीत से बड़े किसी मकसद के दीवानों का है।
समझेंगे इसको वे ही जो सुरा स्वप्न की पीते हैं
दुनिया में रहकर भी दुनिया से अलग खड़े जो जीते हैं।।
इन चार दिनों के जीवन को मैं तो कुछ नहीं समझता हूं
करता हूं वही सदा जिसको भीतर से सही समझता हूं।।।'
जीत से भी बड़े किसी मकसद के लिए जीने वाले और सदा अंतरात्मा की आवाज सुनकर चलने वाले महारथी कर्ण के चरित्र को पर्दे पर जीवंत कर पंकज धीर साहब ने फिर से उन मूल्यों की याद ताजा कर दी जो आज के जीवन में विलुप्त होते जा रहे हैं। उनकी वीरोचित छवि और दिलों से कभी न मिटने वाला दमदार अभिनय उच्च नैतिक मूल्यों के लिए दर्शकों को प्रेरित करता रहेगा-
"जो भींग चुका हो वह भला किस बात से डरता
जो घर में खड़ा था उसे बरसात का डर था
जिंसों का तो बाजार में बिकना था जरूरी
बाजार में बिकते हुए जज्बात का डर था।"
'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹