🙏🙏🙏शुभ दीपावली🙏🙏🙏


संवाद


'दिवाली: दीपों वाली या पटाखों वाली'


आज सुबह टहलने को निकला तो अंधेरे में घर के दरवाजे पर मौन दीपक को जलते देखा। लेकिन हर घर के बाहर जले हुए पटाखे का प्रचुर अवशेष भी देखा जो अपनी धमाकों से ध्वनि प्रदूषण के साथ अन्य प्रकार के प्रदूषण फैलाने के बाद अब स्वच्छता को जीभ दिखा रहे थे। धनतेरस के दिन पटाखों के प्रति इस प्रेम को देखकर मैं चिंतित हूं कि अभी छोटी दिवाली और उसके बाद बड़ी दिवाली पर क्या आलम होगा।


            'तमसो मा ज्योतिर्गमय' की संस्कृति में तो दीप प्रज्वलन की परंपरा थी किंतु गुलामी की विकृति में पटाखा फोड़ने की प्रकृति को बाजार की शक्तियों ने इतना बढ़ा दिया कि दीपावली का मतलब पटाखा फोड़ने से जोड़ दिया गया।


           पर्यावरणविद,शिक्षाविद,चिकित्साविद,न्यायविद सभी इस बात से बहुत चिंतित है कि पटाखों के कारण होने वाले नुकसान इतने ज्यादा हैं कि जिसे गिनाया नहीं जा सकता और इसका लाभ शराब के नशे की तरह है जो न मिले तो परेशानी होती है। आजीविका के साधन के रूप में भी इस प्रकार की आजीविका का क्या औचित्य है जो निर्माण के समय भी अपनों में आग लगाती है और उपयोग के समय में भी धन और वातावरण दोनों को जलाती हैं। अपने होने की घोषणा और अहंकार के विस्फोट से ज्यादा पटाखे की आवाज और क्या बताती है?


           एक कुम्हार मिट्टी से चिलम बना रहा था और एक शिक्षक उधर से गुजर रहा था। उसने कहा कि यह मिट्टी चिलम बनकर स्वयं भी जलेगी और दूसरे को भी जलाएगी; कुम्हार भाई! इस मिट्टी से घड़ा क्यों नहीं बनाते जो स्वयं भी शीतल रहेगी और दूसरे को भी शीतल जल पिलाएगी। कुम्हार को विचार पसंद आया और उसने घड़ा बनाना शुरू किया तो मिट्टी से आवाज आई कि हे कुम्हार भाई! तुम्हारा तो विचार बदला मेरा तो जीवन भी बदल गया। काश!यह शिक्षक पटाखानिर्माता के पास भी पहुंच कर कुछ आईडिया दे पाता। नहीं तो कम से कम बेशुमार पटाखा फोड़कर प्रदूषण फैलाने वालों को ही कुछ विचार दे पाता।


          पटाखों के धमाके में पशु-पंछियों की तो छोड़िए इंसानों की भी आवाज कहीं नहीं सुनाई देती। जो कुछ आवाजें सुनाई देती हैं वो अस्पताल में कराहते हुए आत्माओं की आवाजें होती हैं जो आतिशबाजी का शिकार बनकर खुशी के पर्व को मातम की तरह जीवन और मौत के बीच में जूझते हुए मनाते हैं।


           हमारे मोहल्ले में बीड़ी बम को बच्चे एक दूसरे पर ठीक उसी प्रकार से जलाकर फेंक रहे थे जिस प्रकार से होली में एक दूसरे पर रंग फेंकते हैं। उन्हें इसका अंदाजा भी नहीं कि आंखों के पास बीड़ी बम के फूटने से भी रोशनी जा सकती है। बच्चे तो बच्चे जब बड़ों को भी बड़े बमों के साथ धमाका मचाता देखा तो सोच में पड़ गया कि कहीं मैं ही गलत रास्ते पर तो नहीं हूं जो दीप जलाकर उसकी शांत और मौन रोशनी में नहाकर प्रसन्नता का अनुभव कर रहा हूं-


'मैं तमोमय ज्योति की पर प्यास मुझको


है प्रणय की शक्ति पर विश्वास मुझको


स्नेह की दो बूंद भी तो तुम गिराओ


आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ।'


'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹