🙏राष्ट्रीय एकता दिवस के परिप्रेक्ष्य में 'एकता' पर गहराई से विचार होना चाहिए क्योंकि एक की एकता को राष्ट्रहितैषी और दूसरे की एकता को राष्ट्रविरोधी बताया जा रहा है:🙏


संवाद


'एकता के अनेक पहलू'


राष्ट्रीय एकता दिवस पर 'एकता' को गहराई से समझने की  आज सबसे बड़ी जरूरत है। 'एकता में ही शक्ति होती है' , 'संघे शक्ति: कलौयुगे' जैसे वाक्य हमें बचपन से पढ़ाया जाता है। साथ ही हमें यह भी पढ़ाया जाता है कि 'शक्ति व्यक्ति को भ्रष्ट कर देती है।'


           अब विचारणीय विषय यह है कि यदि शक्ति व्यक्ति को भ्रष्ट कर देती है तो उस शक्ति को प्राप्त करने के लिए एकता पर इतना जोर क्यों दिया जाता है?


          इस संदर्भ में पहली बात यह समझना है कि शक्ति तटस्थ होती है। यदि रावण के हाथ में शक्ति है तो इससे अमंगल उत्पन्न होता है और यदि राम के हाथ में शक्ति है तो मंगल उत्पन्न होता है। ठीक उसी प्रकार से जिस प्रकार से चाकू यदि एक हत्यारे के हाथ में हो तो उससे किसी की हत्या होगी और वही चाकू यदि चिकित्सक के हाथ में हो तो उससे किसी की जान बचाई जा सकती है।


              अब महत्वपूर्ण सवाल खड़ा हो जाता है कि व्यक्ति ज्यादा महत्वपूर्ण है कि संघ (union)? इस प्रश्न के उत्तर में दो दृष्टि महत्वपूर्ण है-एक दृष्टि है कि व्यक्ति महत्वपूर्ण है। ओशो व्यक्तिगत स्वतंत्रता के इतने हिमायती थे कि वे स्वयं किसी संगठन के सदस्य नहीं बने और न ही कोई संगठन बनाया।और दूसरी दृष्टि है कि संघ महत्वपूर्ण है तभी तो 'संघे शक्ति:कलौ युगे' जैसी कहावत प्रचलित हो जाती है।


विश्व के सबसे बड़े कहे जाने वाले संगठन 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ' के 100 वर्ष पूर्ण होने पर यह कहावत और ज्यादा विचार के योग्य हो जाता है। इस प्रचलित कहावत के आधार पर बनी मानसिकता के कारण आज संघ और संगठन का इतना बोलबाला हो गया है कि जाति,धर्म,क्षेत्र,भाषा,लिंग,पेशा इत्यादि अनेक आधारों पर लोग यूनियन बना लेते हैं और 'आवाज दो हम एक हैं' का नारा बुलंद करने लगते हैं। किंतु विभिन्न आधारों पर बने सारे संगठन राष्ट्रीय एकता के लिए एक चुनौती बनते जा रहे हैं।


       लोकतंत्र में तो जिसका जितना बड़ा संगठन बन जाता है, वह उतना ही बड़ा सत्य का दावा करने लगता है। लेकिन हम जानते हैं कि सत्य बहुसंख्या (majority) का मोहताज नहीं होता।


     संगठन में पदानुक्रम होता है, जिसके कारण बड़े अधिकारी के हाथ में संगठन की शक्ति समाहित हो जाती है। यदि बड़ा अधिकारी अपने स्वार्थ को साधने के लिए संगठन की शक्ति का दुरुपयोग करने लगता है तो उसे रोकना मुश्किल हो जाता है।


              नैतिक मूल्यों की शिक्षा देने वाले शिक्षाजगत के संगठनों की जो वस्तुस्थिति सामने आ रही है, वह भी बहुत विचारणीय है।संगठन के मूल्य जितने ऊंचे होते हैं उतने ऊंचे मूल्य वाले व्यक्ति उस संगठन में बहुत कम पाए जाते हैं। ऊंचे मूल्यों के आधार पर बने संगठनों के पदाधिकारी अपने स्वार्थ को साधते रहते हैं। परिणाम यह होता है कि शिक्षक हितों के लिए बना संगठन किसी राजनीतिक हितों के लिए काम करने लगता है।तभी तो शिक्षक हितों के लिए भी अलग-अलग राजनीतिक दलों के समर्थक संगठन बन जाते हैं।


              यहां एक बात ध्यान देने की है कि आत्मा व्यक्ति में होती है,संगठन में नहीं। व्यक्ति की आत्मा को जाग्रत किया जा सकता है। जाग्रत आत्मा वाला व्यक्ति नैतिक मूल्यों का रक्षक होता है।वह हर काम पूर्ण होश में करता है और हर कदम पूर्ण होश में उठाता है।


             एक संगठन में कई जाग्रत आत्माएं हो सकती हैं,इस कारण से उनमें मत विभिन्नता तो हो सकती है किंतु उनका मन एक होता है। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के संग्राम में कांग्रेस संगठन के अंतर्गत गांधी,नेहरू, टैगोर,सुभाष इत्यादि महापुरुषों के विचार एक विषय पर  अलग-अलग होते थे किंतु मतभेद होने के बावजूद उनमें मनभेद नहीं था। इस कारण से जब विचार-विमर्श के बाद एक निर्णय ले लिया जाता था तो सभी उस निर्णय को क्रियान्वित करने के लिए एक भाव से जुट जाते थे। भारत माता को परतंत्रता की बेड़ियों से मुक्त कराने के लिए उन सभी का जीवन समर्पित था,यही कारण था कि कई अवसरों पर अलग-अलग सार्वजनिक विचार देने के बावजूद वे सभी एक दूसरे का अंतर्मन से बहुत सम्मान करते थे। तभी तो टैगोर ने गांधी को 'महात्मा' कहा और सुभाष ने उन्हें 'राष्ट्रपिता' की उपाधि दी।


ऋग्वेद का एक श्लोक कहता है कि-


"संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम् ।


देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानानामुपासते ॥"


जिसका अर्थ है कि हमें एक साथ मिलकर चलना चाहिए, एक साथ बोलना चाहिए, और हमारे मन एक हों, ठीक वैसे ही जैसे प्राचीन देवता अपने-अपने यज्ञ के भाग को आपसी सहमति से ग्रहण करते हैं।


              किंतु एक मन का निर्माण सदा से बहुत बड़ी चुनौती रही है। हम जानते हैं कि गांधी के रास्ते से सुभाष का रास्ता एकदम अलग था, फिर भी दोनों के लक्ष्य एक थे-भारत की स्वतंत्रता। रास्ते भले ही न मिलते हो दोनों के किंतु मन तो मिला था क्योंकि दोनों के मन में स्वतंत्रता की प्यास थी।


          इसी कारण से हमारी संस्कृति में एकता के आधार पर बने संघ,संगठन, समूह और भीड़ में अंतर किया गया है। महात्मा बुद्ध के साथ हजारों भिक्षु चलते थे और वे सभी बुद्ध की संगति में मौन और ध्यान में बैठते थे तो पूरा वातावरण शांति और प्रेम से आप्लावित हो जाता था। एक जाग्रत आत्मा के सान्निध्य में हजारों चेतनाओं का दीप प्रज्वलित हो जाता था। उस समय यह एकता 'संघ' कहलाती थी।


                जब बुद्ध नहीं रहे तो उनके वचनों को सुनने वाले लोगों ने मार्गदर्शन देना शुरु किया। तब यह संघ 'संगठन' में परिवर्तित हो गया। संगठन में बुद्ध के साथ रह चुके लोग थे और बुद्ध की बातें भी थीं किंतु बुद्ध स्वयं उपस्थित नहीं थे।


                 बाद में बुद्ध के वचनों को लिपिबद्ध करके शास्त्र निर्मित कर लिया गया। सिर्फ शास्त्र के आधार पर जो एकता निर्मित हुई उस पर चलने वाले लोग 'समूह' में परिवर्तित हो गए। बुद्ध की कही गई बातों के अपने-अपने अर्थ निकाले  जाने लगे। बुद्ध के जिंदा रहते संघ एक था लेकिन अब वह अनेक शाखाओं में विभक्त हो गया और इसीलिए समूह बन गया।


             जब बुद्ध भी नहीं रहे , बुद्ध के साथ संगति में रहे लोग भी नहीं रहे और बुद्ध के वचनों के आधार पर बनाए गए शास्त्र भी नहीं रहे तो वह समूह भीड़ में परिवर्तित हो गई। भीड़ में भी तथाकथित एकता होती है लेकिन वह एकता विनाशक होती है; क्योंकि भीड़ की कोई आत्मा नहीं होती।मुसलमानों की भीड़ मंदिर में आग लगा देती है और हिंदुओं की भीड़ मस्जिद जला देती है।


एकता के नाम पर इक्कट्ठे हो गए आत्महीन लोगों की भीड़ आज राष्ट्र के लिए सबसे बड़ा खतरा बनती जा रही है। भारतीय ज्ञान परंपरा कहती हैं-'आत्मार्थे पृथ्वीं त्यजेत्'.


'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹