🙏राजनीति का अपराधीकरण:अपराधियों को भारी मात्रा में टिकट देकर राजनीतिक दल अपराधमुक्त बिहार बनाने का सपना दिखा रहे हैं-एक विश्लेषण 🙏


संवाद


'दल को नहीं,अच्छे उम्मीदवार को चुनें'


राजनीति के दुलारचंद अनंत हैं। बिहार चुनाव में मोकामा सीट राजनीति के अपराधीकरण का अद्भुत उदाहरण है। यहां सिर्फ उम्मीदवार ही नहीं बल्कि प्रचारक तक भी आपराधिक पृष्ठभूमि के अथवा अपराधी को समर्थन देने वाली मानसिकता के हैं।


         आरोप है कि आपराधिक पृष्ठभूमि वाले दुलारचंद यादव प्रशांत किशोर की 'जनसुराज पार्टी' का प्रचार कर रहे थे और जनता दल यूनाइटेड (JDU) के उम्मीदवार बाहुबली अनंत सिंह ने उनकी हत्या कर दी। काफी हंगामा होने के बाद अनंत सिंह ने 'सत्यमेव जयते' कहते हुए सुशासन का राज्य दिखाने के लिए अपनी गिरफ्तारी दी। और फिर एक केंद्रीय मंत्री ने अनंत सिंह के जेल जाने के बाद उनका प्रचार करते हुए जनसभा में आह्वान किया कि हर एक को अनंत सिंह बनकर चुनाव लड़ना है। मोकामा से त्रिकोणीय मुकाबले में खड़ा महागठबंधन के राष्ट्रीय जनता दल (RJD) का उम्मीदवार भी बाहुबली की पत्नी है।


             अपराधमुक्त और ज्ञानयुक्त बिहार का वादा करने वाली राजनीति ने सुशासन की स्थापना के लिए अच्छी संख्या में अपराधियों को टिकट दिया है। 'बोये पेड़ बबूल के,आम कहां से होय' यह कहावत जीवन के सबसे बड़े सत्य का रहस्योद्घाटन करती है। एक भी पार्टी ऐसी नहीं है जिसमें अच्छी संख्या में दागी उम्मीदवार न हों। 'लोहा लोहे को काटता है' इस सिद्धांत का अनुसरण करते हुए एक दल ने एक अपराधी को टिकट दिया तो दूसरे दल ने उससे भी खतरनाक अपराधी को टिकट देकर यह घोषणा कर दी कि हम तुमसे किसी मायने में कम नहीं है।


                  टीवी डिबेट में हर एक दल का सुशिक्षित प्रवक्ता निर्लज्जता से अपने उम्मीदवार को अच्छा नहीं बताकर दूसरे दल के उम्मीदवार को ज्यादा बड़ा अपराधी कहकर अपराध को संरक्षण दे रहा है। ऐसे अपराधियों में से किसी एक को चुनने के लिए शत प्रतिशत मतदान करवाने हेतु चुनाव आयोग द्वारा प्रचार-प्रसार किया जाएगा। चुनाव में पढ़ाने का काम छोड़कर न जाने कितने शिक्षक और न जाने कितने ईमानदार अधिकारी-कर्मचारी शांतिपूर्वक मतदान करवाने हेतु दिन-रात मेहनत करेंगे। अंत में चुनाव को सफलतापूर्वक संपन्न मान लिया जाएगा।


         जनता की बुरी स्थिति के लिए कुछ लोग 'कर्म' को जिम्मेदार मानते हैं तो दूसरे कुछ लोग 'भाग्य' को जिम्मेवार मानते हैं तो तीसरे कुछ लोग 'व्यवस्था' को जिम्मेवार मानते हैं। लेकिन अब मुझे लगता है कि लोकतंत्र में सबसे बड़ी जिम्मेवारी राजनीति की है। क्योंकि राजनीति अब सब कुछ निर्धारित कर रही है। शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य तक,जन्म से लेकर मरण तक सब कुछ राजनीति द्वारा तय किया जा रहा है। गंगोत्री से ही राजनीति गंदी है तो इससे निकली गंगा कहां से साफ होगी।


       धनानंद के कुशासन को साफ करने के लिए आचार्य चाणक्य ने सुशासन की शिक्षा देकर चंद्रगुप्त मौर्य को तैयार किया था और उन्हें अपने प्रयास में सफलता भी मिली। क्योंकि राजतंत्र में धनानंद एक था। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में तो ये धनानंद अनंत हो गए हैं। निरीह जनता इनके कारण अपनी जननी और जन्मभूमि को छोड़कर पलायन कर जा रही है। कश्मीर से पंडितों के पलायन और बिहार से बिहारियों के पलायन में कोई विशेष अंतर नहीं है। बस इतना ही अंतर है कि कश्मीर में पंडितों की जान खतरे में थी और बिहार में बिहारियों का जीवन खतरे में है। न शिक्षा की व्यवस्था ठीक,न चिकित्सा की व्यवस्था ठीक, न कोई नौकरी लगने की संभावना और न कोई उद्योग लगने की संभावना फिर भी दावा किया जा रहा है कि बिहार का चुनाव भारत की दशा और दिशा तय करेगा।


           सिर्फ चुनावी पोस्टर में कोई अपने आप को नायक बता रहा है तो कोई जननायक। थोड़ा गहराई से झांकने पर सभी खलनायक साबित हो रहे हैं। इन खलनायकों के बीच में से जो भी जीतेगा वह अपने आप को असली नायक घोषित कर देगा। क्योंकि जिसके पास बहुमत होता है,वही सत्य हो जाता है‌। और 'सत्यमेव जयते' अपना राष्ट्रीय वाक्य है, जिसका अर्थ लगाया जाता है कि सत्य की ही जीत होती है। वास्तविकता में जो जीतता है वह अपने को सत्य घोषित करने लगता है। यह है भारत का लोकतंत्र। लेकिन हकीकत यह है कि सत्य बहुसंख्या का मोहताज नहीं होता।


            ऐसी स्थिति में उपाय क्या है? भारत की दलीय प्रणाली को नजरअंदाज किया जाए। क्योंकि हर दल अपराधी किस्म के लोगों को थोड़ी बहुत मात्रा में संरक्षण दे रहा है। दल के पास कोई आत्मा नहीं होती। व्यक्ति के पास आत्मा होती है। इसलिए उम्मीदवार को देखकर वोट डाला जाए, दल को देखकर हरगिज नहीं। यदि जनता अच्छे उम्मीदवार को नहीं चुनती है तो धनानंदों के अत्याचार और अन्यायपूर्ण शासन का खामियाजा आगे भी भुगतते रहेगी।


             यदि एक अच्छा उम्मीदवार जीतता है तो उसको हराने के लिए उससे भी अच्छा उम्मीदवार दूसरे दल को खड़ा करना पड़ेगा‌। इस प्रकार एक अच्छाई की प्रतियोगिता शुरू होगी। आज तो एक बुरे उम्मीदवार को हराने के लिए उससे भी ज्यादा बुरे उम्मीदवार को खड़ा करना पड़ रहा है। परिणामस्वरूप बुराई दिनों ब दिन बढ़ती जा रही है।


            विश्व की सारी प्रतिभाओं को आकर्षित करने वाली नालंदा विश्वविद्यालय की धरती आज अज्ञानियों और अपराधियों की चर्चा में उलझा हुआ है। मीडिया भी अच्छे उम्मीदवारों पर चर्चा नहीं कराती क्योंकि उनके लिए आदमी यदि कुत्ता को काटे तभी समाचार बनता है।यह चुनाव एक सामान्य राजनीतिक चुनाव नहीं है, किसी राज्य के वासियों के जीवन और मरण का चुनाव है। फैसला मतदाता को करना है। राजतंत्र में 'यथा राजा,तथा प्रजा' कहावत प्रचलित थी किंतु लोकतंत्र में 'यथा प्रजा, तथा राजा' मूलमंत्र है। यदि प्रजा सजग नहीं हुई तो बुद्ध का बिहार बुद्धुओं के हाथ का खिलौना बना रहेगा।


'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹