🙏अप्रत्याशित चुनावी नतीजे वाले बिहार का विश्लेषण 🙏


संवाद


'बिहार का सबक और संदेश'


बिहार के बारे में बात शुरू करने से पहले मैं प्रयागराज जो पूर्व में 'इलाहाबाद' के नाम से जाना जाता था, उस पर लिखी किसी कवि की चंद पंक्तियों से प्रारंभ करना चाहता हूं क्योंकि ये पंक्तियां बिहार पर भी सटीक बैठती है-


'यहां गंगा,यहां जमुना,यहीं संगम;मगर फिर भी


बहुत पीछे इलाहाबाद क्यूं है,सोचना होगा?


वो ज्ञानी है मगर नाशाद क्यूं है, सोचना होगा


वफा की राह में बर्बाद क्यूं है ,सोचना होगा??'


          गणतंत्र की पहली लाली जिस वैशाली में फूटी थी, महावीर और बुद्ध जैसे दो धर्मप्रणेता को जो जन्म देने वाली है, आर्यभट्ट जैसे वैज्ञानिक से लेकर चाणक्य जैसे राजनीतिज्ञ तक को पैदा करने वाली जो धरती है,जो शिक्षा के क्षेत्र में नालंदा विश्वविद्यालय तैयार कर चुकी है, आज भी शिक्षा और उर्वरता की दृष्टि से जिस मिट्टी का कोई जवाब नहीं है ; उस बिहार की धरती के पिछड़ेपन पर और चुनाव नतीजे पर आज सोचना होगा।


       डूबते सूर्य को सबसे पहले पूजा करके छठ व्रत मनाने वाला बिहार वयोवृद्ध और अनुभवी नीतीश जी को उगते बिहार के लिए कुछ और विशेष करने का जनादेश दिया है। किंतु जनादेश इतना प्रचंड होगा,इसकी कल्पना नहीं थी।


           लालू जी के जंगलराज लौटने का भय मतदाताओं को इतनी अच्छी प्रकार से याद दिलाया गया कि वे भय से कांप उठे और नीतीश के सुशासन के गिरते ग्राफ में भी आशा का सूरज देखने लगे। पटना विश्वविद्यालय का मैं छात्र रहा हूं जहां के छात्रसंघ अध्यक्ष के रूप में लालू जी और नीतीश जी को जानने के बाद बिहार के अगुआ के रूप में भी दोनों को नजदीक से देखा। हालांकि मेरी राजनीति की समझ अच्छी नहीं है किंतु मेरा अनुभव इस समय बहुत काम का है।


             लोकनायक जयप्रकाश की संपूर्ण क्रांति से उभरे लालू प्रसाद यादव की राजनीति ने पिछडों को आवाज जरूर दी लेकिन अगड़ों के सद्गुणों को अपनाकर आगे बढ़ने के लिए शिक्षा और सुविधाएं नहीं दी। परिणामस्वरूप सुशिक्षित लोगों को गाली देना और ईर्ष्या-द्वेष को जगाकर अपनी संगठित शक्ति का अगड़ों को एहसास कराना पिछड़ों का मुख्य उद्देश्य हो गया। जातीय सेनाएं बनने लगीं और हर मोहल्ले में पार्टी के कार्यकर्ता वसूली करने लगे।अपहरण का उद्योग पनप गया और जातीय नरसंहार होने लगे। शिक्षा संस्थानों की ऊंचाइयां चरवाहा विद्यालय में अपना भविष्य देखने लगी। अपने दुर्गुणों के बावजूद लोकतंत्र को लाठी से हांका जा सकता है, यह लालू जी ने बिना दुराव-छिपाव के अपने मन,वचन,कर्म से करके दिखा दिया। लड़कियों का बाहर निकलना दुभर हो गया और लड़कों का रंगदारी टैक्स वसूलने में भविष्य बच गया। अपराधी का राजनीतिकरण थोड़ा बहुत लोकतंत्र में चलता था किंतु लालू जी ने राजनीति का अपराधीकरण इतने बड़े पैमाने पर किया कि अपनी बुद्धि और श्रम को लेकर लोग बिहार से पलायन कर गए। राष्ट्रीय जनता दल पर जंगलराज का आरोप लगने लगा।


          फिर नीतीश राज आया और बिहार में लड़कियां रातों में निकलने लगीं तथा अपराधी दुबकने लगे। सुशासन बाबू ने सड़क से लेकर शिक्षा तक के विकास की ओर ध्यान देना शुरू किया। लेकिन बिहार की दुर्दशा को मिटाने के लिए और पलायन कर चुके लोगों को वापस बुलाने के लिए कृषि से लेकर उद्योग तक के क्षेत्र में बहुत बड़ा परिवर्तन करना था।उसके लिए जो जातिगत मानसिकता को मिटाकर बहुत बढ़िया पूंजी निवेश करना था, यह कार्य  नहीं हो पा रहा था। अतः फिर अपराधियों का बोलबाला बढ़ने लगा और सुशासन बाबू की छवि तथा स्वास्थ्य पर नित नए सवाल खड़े होने लगे। बार-बार साथी बदलने से पलटूराम की उनकी छवि ने नए नेता की तलाश को जगह दे दी।


          ऐसे में तेजस्वी की नई छवि उभरने लगी जो पढ़ाई,दवाई और कमाई की बात करके सरकारी नौकरियां देने का वादा करके युवाओं को आकर्षित करने लगे। राहुल गांधी जी द्वारा वोट चोरी के मुद्दे, पिछड़ों को हिस्सेदारी के आधार पर भागीदारी देने के मुद्दे और राजद द्वारा अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के मुद्दे उठाए जाने के कारण टक्कर बहुत कांटे की लगने लगी।


          तीसरी तरफ प्रशांत किशोर जी ने जनसुराज पार्टी बनाकर एक नया विकल्प खड़ा करने के लिए अथक परिश्रम किया। राजनीति में सुशिक्षित-सुसंस्कृत लोगों को खड़ा करके शिक्षा और रोजगार पर जनजागरण करने लगे। उनके अभियानों और विचारों के साथ उनकी काबिलियत को देखकर आशा की एक नई किरण जगी। लेकिन शिक्षा पाकर,मेहनत करके,योग्यता बढ़ाकर बिहार को आगे बढ़ाने की उनकी मुहिम उन्हें समाज सुधारक तो बना सकी किंतु अनेक पार्टियों को जितानेवाले की स्वयं की पार्टी खाता भी नहीं खोल सकी।मेरे हृदय से अचानक आह निकली-


'मजा देखा मियां सच बोलने का


तू जिधर है ,उधर कोई  भी  नहीं।'


          ऐसे में राजनीति की साम-दाम-दंड-भेद की नीति में निपुण भारतीय जनता पार्टी ने व्यावहारिक और सांगठनिक दृष्टि को अपनाकर ऐसी बाजी पलटी कि राजनीति के गहरे से गहरे विश्लेषक भी हक्के-बक्के रह गए। लोकतंत्र में जीत का बहुमत ही सत्य को निर्धारित करता है। हिंदुत्ववादी राजनीति ने विरासत और विकास के दो पंखों पर जो बिहार की राजनीति में उड़ान भरी है, उसको समझना आसान नहीं है। लेकिन जब जाति के आधार पर देश के बंटने का खतरा बढ़ने लगे तो धर्म के आधार पर देश को एकजुट करने का रास्ता मानव मनोविज्ञान से निकल आता है।


       लेकिन बिहार हो या भारत; जब तक जाति,धर्म से ऊपर उठकर शिक्षा के द्वारा योग्यता बढ़ाने को प्राथमिकता नहीं देता तब तक कोई भी चुनावी नतीजा जनता के पिछड़ेपन को दूर नहीं कर सकता।


'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹