दर्शन की ओर लौटो
November 20, 2025🙏"विश्व दर्शन दिवस" पर भारतीय संस्कृति के पहले विषय 'दर्शन' के महत्त्व की विवेचना🙏
संवाद
'दर्शन की ओर लौटो'
विश्व दर्शन दिवस पर इस बात पर गहराई से विचार-विमर्श होना चाहिए कि भारतीय संस्कृति का सबसे पहला विषय दर्शन उपेक्षित क्यों है? जबकि हम जानते हैं कि आज भी शिक्षा जगत में किसी भी विषय की सर्वोच्च उपाधि पीएचडी का मतलब होता है 'डॉक्टरेट इन फिलोसोफी'. लेकिन आज विद्यालय-शिक्षा में कहीं भी दर्शन विषय पढ़ाया नहीं जाता है और महाविद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों में भी इसको पढ़नेवाले छात्रों की संख्या और पढ़ानेवाले शिक्षकों की संख्या बहुत न्यून हो चुकी है।
भारत जब विश्वगुरु के रूप में संसार का मार्गदर्शन किया करता था,उसके मूल में उसकी सर्वव्यापी और सर्वसमावेशी दृष्टि का सबसे बड़ा योगदान था। भारत के वे द्रष्टामंत्र आज भी भारत के ही नहीं बल्कि विश्व के प्रसिद्ध संस्थानों के आदर्श बने हुए हैं-जैसे 'वसुधैव कुटुंबकम्' , 'माता भूमि:,पुत्रो अहम् पृथिव्या:', 'सत्यमेव जयते' इत्यादि। लेकिन वास्तविक जीवन उनसे बहुत दूर हो चुका है। आज देश ही नहीं बल्कि राज्य,परिवार और व्यक्ति आपस में संघर्ष कर रहे हैं। 'सर्वे भवंतु सुखिन:' का भाव गायब है। धरती के साथ हमने माता के समान व्यवहार कहां किया है ,उसके साथ तो हमने शत्रु के समान व्यवहार किया है,तभी तो सभी जगह पर प्रकृति को नष्ट-भ्रष्ट किया जा चुका है जिसके परिणामस्वरुप जलवायु संकट आज की सबसे बड़ी समस्या बन चुकी है।
बढ़ती हुई आर्थिक समृद्धि के बीच में संकुचित होती हुई मानसिकता के कारण धर्म अधर्म बनता जा रहा है और इंसान शैतान बनता जा रहा है। तभी तो पढ़े-लिखे डॉक्टर लोग भी धर्म के नाम पर आतंकी बन रहे हैं और इंसान भ्रष्टाचार और व्यभिचार के दलदल में धंसता जा रहा है। एक तरफ शिक्षा के प्रचार-प्रसार के कारण अक्लवाले लोग बढ़ते जा रहे हैं किंतु दूसरी तरफ आत्मावाले लोग दुर्लभ होते जा रहे हैं-
'अक्ल बारीक हुई जाती है,
रूह तारीक हुई जाती है।'
भारतीय संस्कृति का सबसे पहला विषय "दर्शन" आज भी सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है क्योंकि असम्यक् दर्शन के कारण भौतिकतावादी, उपभोक्तावादी और प्रतियोगितावादी दृष्टि ने संसार को अवसाद और आत्महत्या की ओर धकेल दिया है। सम्यक् दर्शन के प्रतिष्ठित होने पर हमारी शिक्षा 'मैं कौन हूं?' प्रश्न की खोज में प्रयास करेगी। फिर गुरु कृपा से आत्मज्ञान पाते ही वह सहिष्णुता और सामंजस्य को उपलब्ध हो जाएगी।
बढ़ती हुई कट्टरता और ईर्ष्या-द्वेष के कारण जो संसार विष से भर गया है, वह आत्मज्ञान के उपलब्ध होते ही अमृत से भी परिपूर्ण हो सकता है।
सिर्फ अमृत काल लिखने से और उसका प्रचार-प्रसार करने से अमृत काल नहीं आएगा बल्कि दर्शन जैसे विषय को पुनर्प्रतिष्ठित करके आत्मज्ञान की खोज में निकलने से वह आएगा; अन्यथा-
'सुधा कल्पनामात्र, गरल का दावा सोलह आने सच है
कभी किसी ने चखा न देखा, केवल नाम चला आता है
पर विष बिकता चौराहे पर जो खाता है ,मर जाता है।'
'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹