शिक्षालय क्यूं बन रहे आत्महत्या के केंद्र
November 22, 2025🙏जयपुर में अमायरा के बाद दिल्ली में शौर्य की आत्महत्या ने शिक्षक,शिक्षार्थी,अभिभावक संबंध पर गहराई से पुनर्विचार पर मजबूर कर दिया है🙏
संवाद
'शिक्षालय क्यूं बन रहे आत्महत्या के केंद्र'
स्कूल शिक्षक से परेशान होकर जब स्टूडेंट आत्महत्या जैसा कदम उठाने लगे तो शिक्षा-व्यवस्था पर उठ रहे प्रश्नों पर गहराई से विचार-विमर्श होना चाहिए। मन के निर्माण में मां-बाप से भी ज्यादा बड़ी भूमिका शिक्षक की होती है। परिवार प्राथमिक पाठशाला अवश्य है किंतु मन के निर्माण की प्रयोगशाला और प्रशिक्षणशाला तो शिक्षालय ही है। क्योंकि शिक्षक इसी उद्देश्य विशेष से तैयार किए जाते हैं। अतः मां-बाप से तन और अनगढ़ा मन लेकर शिक्षक के पास स्टूडेंट पहुंचता है। अतः हमारी संस्कृति में माता,पिता और गुरु तीनों को देव मानने के लिए कहा गया है-मातृ देवो भव,पितृ देवो भव, गुरु देवो भव।
कोरा कागज की तरह बच्चा धरती पर आता है। मां,बाप और शिक्षक दिव्य हों तो उस कोरे कागज पर देवता का चित्र उभर आता है किंतु यदि तीनों अदिव्य हों तो उस कोरे कागज पर दानव का चित्र भी उभर सकता है। मन के निर्माण में इन तीनों की भूमिका के बाद समाज, सरकार और परिवेश महत्वपूर्ण होता है।
माता,पिता और शिक्षक का देव होने का मतलब है प्रेम से भरा होना। माता पिता से भी ज्यादा महत्त्व यदि शिक्षक को हमारी संस्कृति में दिया गया है तो उसका कारण है कि शिक्षक प्रेम और ज्ञान के दो पंखों से जीवन में उड़ान भरता है। इसलिए भारत रत्न कलाम साहब अपने सभी शिक्षकों का नाम देवताओं के समान सम्मान से लेते हैं।
आज की व्यावसायिक शिक्षा के जमाने में यह शिक्षक प्रेम की जगह प्रतियोगिता से और ज्ञान की जगह सूचना से ज्यादा भर गया है। मां बाप भी शिक्षक से अपेक्षा रखते हैं कि मेडिकल और इंजीनियरिंग की प्रतियोगिता परीक्षा में मेरे बच्चे को पास करा देना। इसके लिए शिक्षक जीवन ज्ञान से ज्यादा परीक्षा पास कराने वाली सूचना पर ज्यादा ध्यान देता है। अभिभावक-शिक्षक मीटिंग में भी सबका ध्यान अंकों पर रहता है,जीवन मूल्यों पर नहीं। कोटा के कोचिंग संस्थान में जो आत्महत्या बड़े पैमाने पर हो रही थी ,वह अब स्कूलों में छोटे पैमाने पर घटित होने लगी। इसका मतलब है कि कोचिंग संस्थान में जो तनाव और दवाब बड़े पैमाने पर था,वह अब स्कूलों में भी छोटे पैमाने पर दिखाई देने लगा।
'खिलौनों के बदले में बारुद दी
बच्चों में अब गुलफिशानी कहां!
जलाकर शमा पूछते हो आप
पतंगों की अब जिंदगानी कहां!!'
महत्वाकांक्षा का ज़हर इतरा ज्यादा फैल गया है कि इसमें प्रेम के अमृत का कहीं दर्शन ही नहीं होता। महत्वाकांक्षा आजीविका के लिए जरुरी है तो प्रेम भी जीवन के लिए जरुरी है। आज का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है कि मां बाप का रिश्ता भी बच्चे के साथ प्रेम की जगह महत्वाकांक्षा का ज्यादा होता जा रहा है। शिक्षक मां-बाप की महत्वाकांक्षा को पूरा करने का माध्यम बनते जा रहा है। कितने मां-बाप होंगे जो अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन के समान अपने बच्चे के शिक्षक से यह कह सकेंगे कि मेरे बच्चे को जीतना अवश्य सिखाना किंतु सिखा सको तो यह भी सिखाना कि जीवन में हार को गले कैसे लगाया जाता है? मेरे बच्चे को यह अवश्य बताना कि दुनिया बेईमानों से भरी हुई है; किंतु बता सको तो यह भी बताना कि हजारों बेईमानों पर एक ईमानदार भारी पड़ जाता है।
मेरे जीवन का अनुभव है कि हमारे शिक्षक हमें डांटते ही नहीं, मारते-पीटते भी थे। और हमारे मां बाप शिक्षक की नाराजगी का मतलब यह निकालते थे कि बच्चा गलती पर है और शिक्षक उसे सुधारना चाहता है। किंतु आज शिक्षक का स्टूडेंट के साथ संबंध हार्दिक नहीं रह गया,वह व्यावसायिक और औपचारिक हो गया है। जबकि
'जिसके हृदय जितना समीप है वही दूर जाता है
और क्रोध आता उस पर ही जिससे कुछ नाता है।'
अब तो शिक्षक छात्र के बीच हृदय की समीपता का कुछ नाता ही नहीं बचा। नाता सिर्फ इतना है कि फीस लो और रिजल्ट दो।
'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹