🙏गीता जयंती की शुभकामना:मुफ्त की सौगातें और अधिकार की बातें करने वाले युग में गीता अधिक प्रासंगिक होती जा रही है🙏


संवाद


'गीता कर्त्तव्य की पुकार है'


गीता जयंती पर विचारणीय विषय यह है कि जिस कृष्ण ने 'कर्मण्येवाधिकारस्ते' (कर्म में ही तेरा अधिकार है) का उपदेश दिया था, उस उपदेश को भारत ने ग्रहण किया अथवा नहीं?


            भारत की दुर्दशा का मूल कारण यह है कि भारतीय संस्कृति के मूल दर्शन से हम कट गए हैं। पश्चिम की संस्कृति ने अधिकार पर सबसे ज्यादा जोर दिया और उससे प्रभावित होकर हमारे संविधान-निर्माताओं  ने भी मूल संविधान में अधिकार को बहुत महत्वपूर्ण स्थान दिया किंतु कर्त्तव्य को स्थान देना भूल गए। संविधान निर्माण की परिस्थिति भी ऐसी थी कि परतंत्रता के लंबे काल में जनता के अधिकारों को कुचल दिया गया था। उन अधिकारों को पुनः प्राप्त करना स्वतंत्रता का मुख्य ध्येय बन गया।


       लेकिन संविधान के 'भाग 4' जो राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत से संबंधित है, उस पृष्ठ पर महाभारत युद्ध में किंकर्तव्यविमूढ़ अर्जुन को गीता का उपदेश देते हुए कृष्ण को दिखाया गया है। बाद में 42 वें संविधान संशोधन के द्वारा 1976 में भाग चार 'क' जोड़ा गया जिसके अंतर्गत मूल कर्त्तव्यों को गिनाया गया।


              कर्त्तव्य चेतना भारतीय संस्कृति का प्राण है,कृष्ण उसके प्रतीक है और गीता उसकी अभिव्यक्ति है। अन्यथा बलराम जी की तरह महाभारत में भाग न लेने का निर्णय कृष्ण भी ले सकते थे और तीर्थ यात्रा पर जा सकते थे। किंतु कृष्ण ने महाभारत युद्ध टालने का अंतिम समय तक प्रयास किया और न टलने पर उसमें धर्म की राह पर चल रहे पांडव की तरफ से लड़ने का फैसला भी लिया।


           गीता जयंती कर्मकांडीय दिवस मात्र नहीं है बल्कि अपने-अपने कर्त्तव्य के प्रति समर्पित होने के संकल्प का दिवस है। कृष्ण और गीता की पूजा करना और उनका मंदिर बनाना अच्छी बात है किंतु कृष्ण हो जाना और गीता को जीवन में उतार लेना सबसे बड़ी बात है।


           आज महिलाओं के अधिकार,अल्पसंख्यकों के अधिकार, बालकों के अधिकार,वृद्धों के अधिकार,मजदूरों के अधिकतर,किसानों के अधिकार इत्यादि अनेक प्रकार के अधिकारों के लिए कई कानून बनाए गए किंतु उन सभी के अधिकार अभी भी अप्राप्त हैं क्योंकि अधिकार फल है और कर्त्तव्य मूल (जड़)है। मूल को सींचने से फल की प्राप्ति होती है। कृष्ण ने मूल को सींचा था और गीता के अपने उपदेश द्वारा कर्त्तव्य से पलायन करते हुए अर्जुन को उसकी कर्मभूमि में उतार दिया था।


         गीता को उपनिषदों का सार कहा गया है क्योंकि हमारे उपनिषद मानते हैं कि हमारा जीवन ऋणों से मुक्ति के लिए है, अतः जीवन भोग के लिए नहीं 'योग' के लिए बना है। ज्ञान योग,कर्म योग,भक्ति योग के किसी रास्ते से मुक्ति प्राप्त हो सकती है।


              लेकिन आज भारत की समस्याओं के समाधान के लिए सबसे प्रमुख रास्ता कर्मयोग का है। क्योंकि 80 करोड़ लोग जहां 5 किलो अनाज पर निर्भर होने लगें, वहां पर आज यह सोचने का वक्त है कि क्या उनको अपने पुरुषार्थ पर इतना भी भरोसा नहीं कि इस उर्वर भूमि से अपने लिए 5 किलो अनाज उगा सकें। शिक्षा प्राप्त कर डिग्री लेकर करोड़ों युवा सरकारी नौकरी की आशा में बेरोजगार बने बैठे हैं, क्या उनको अपने कर्म कौशल पर इतना भी भरोसा नहीं कि जीवन की आजीविका को अर्जित करने के लिए स्वयं कोई रोजगार का सृजन कर सकें। सीधे अकाउंट में पैसा देकर महिलाओं के वोट खरीदे जा रहे हैं, क्या उन्हें अपने कर्मशक्ति पर इतना भरोसा नहीं कि वे मुफ्त की राशि लेने से इनकार कर सकें और स्वयं अर्जित कर सकें।


           राजनीतिक दलों द्वारा दी जाने वाली मुफ्त की सौगातें भारत की चेतना को दीनहीन बना रही है जबकि कृष्ण की चेतना गीता के द्वारा उन्हें अपने कर्मभूमि की ओर लौटने को ललकार रही है। 'कर्म में ही तेरा अधिकार है,फल में कदापि नहीं' गीता का यह उपदेश दोहराने वाला भारत सिर्फ फल के पीछे भागने वाला देश बनता जा रहा और सरकारी सहायता या सब्सिडी की ओर निगाहें उठाए इंतजार कर रहा है; क्या यह कृष्ण और उनकी गीता के प्रति सम्मान है?


'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹