'विश्वविभूतियों का अस्त और उदय'


आज सुबह जब टहलने निकला तो अचानक मेरी दृष्टि विश्व की दो महान विभूतियों की तरफ गई। एक तरफ पश्चिम दिशा में चंद्रमा अस्त हो रहा था और दूसरी तरफ पूर्व दिशा में सूर्य उदित हो रहा था।मैं भावविभोर हो गया। फिर मुझे लगा कि जीवन का कितना अद्भुत संदेश एक साथ दिखाई दे रहे ये दोनों दृश्य दे रहे हैं। तुरंत मुझे नई पीढ़ी की याद आई जो आजकल छोटी-छोटी असफलताओं में टूट जा रही हैं। वे विषाद को प्राप्त हो रहे हैं और आत्महत्या तक का कदम उठा लेते हैं। उन्हें लगता है कि अब मेरा कुछ भी नहीं हो सकता।


            ऐसे सारे युवा उस अर्जुन की तरह है जो महाभारत के युद्ध में विषाद को प्राप्त हो गया है। लेकिन महाभारतकालीन अर्जुन के पास कृष्ण थे। अर्जुन ने उनसे शिष्य भाव से यह प्रश्न किया कि जिन भीष्म पितामह की गोद में मैं खेला हूं और जिन गुरु द्रोण से धनुर्विद्या सीखा हूं, उनके साथ मैं युद्ध कैसे करूं? मैं यह युद्ध नहीं कर सकता; ऐसा कहकर वह विषादग्रस्त हो गया और रथ में बैठ गया। कृष्ण ने उसके विषाद को योग में बदल दिया और महाभारत युद्ध के लिए सिर्फ तैयार ही नहीं किया बल्कि उसे सफलता की मंजिल तक पहुंचा दिया। गीता का पहला अध्याय इस कारण से विषाद-योग कहा गया है। विषाद योग में बदल सकता है यदि आपके पास कृष्ण हो।


          आज के अर्जुन अपने कृष्ण से दूर हो चुके हैं। सही सलाह देने वाला कोई सखा उनके जीवन में नहीं रहा। प्रकृति से भी वे दूर हो गए हैं। पत्थरों के बड़े-बड़े भवन में सिर्फ प्रतियोगिता की शिक्षा उन्हें दी जा रही है और उसके बदले मोटी फीस वसूली जा रही है। उन्हें सिर्फ हर कदम पर और हर कीमत पर जीत की शिक्षा दी जा रही है।


        कृष्ण ने अर्जुन को यही समझाया कि सुख और दुख,लाभ और हानि, जय और पराजय दोनों को समान समझो और हर स्थिति में अपने संघर्ष को जारी रखो-


'सुखदु:खे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ |


ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ||'


कृष्ण का वही संदेश आज सुबह मुझे विश्व की दो महान विभूतियों के अस्त और उदय में दिखलाई पड़ा। तब मुझे लगा कि हम साधारण मनुष्य जीवन की कितनी गलत व्याख्या कर बैठे हैं जो सोचते हैं कि हमेशा जीत ही मिलेगी। कालिदास ने अभिज्ञानशाकुंतलम में चंद्रमा के अस्त और सूर्य के उदय को एक साथ दिखाकर जीवन का वही संदेश दिया है जो कृष्ण ने अर्जुन को दिया था-


'यात्येकतोअस्तशिखरं पतिरोषधीना


माविष्कृतोअरुणपुर:सर एकतो अर्क:


तेजोद्वयस्य युगपत् व्यसनोदयाभ्यां


लोको नियम्यत इवात्मदशान्तरेषु।'


      अतः किसी भी परिस्थिति में अपनी मन:स्थिति संघर्ष करते हुए आगे बढ़ते रहने की होनी चाहिए। परमात्मा और प्रकृति के संदेश को सुनने वाले कान और देखने वाली आंखें पैदा करनी चाहिए-


'क्यूं दूर हट के जाएं हम दिल की सरज़मीं से


दोनों जहां की सैरें हासिल हैं सब यहीं से


यह राज सुन रहे हैं एक मौजें तहनसीं से


डूबे हैं हम जहां पर उभरेंगे फिर वहीं से।'


'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹