विद्या अर्जन से विमुख विद्यार्थी मनोरोग की चपेट में
December 13, 2025🙏उच्चतम न्यायालय के निर्देशानुसार नेशनल टास्क फोर्स का गठन किया गया है जिसमें उच्च शिक्षण संस्थानों में छात्रों के खराब होते मानसिक स्वास्थ्य और बढ़ते सुसाइड को रोकने हेतु विचार को आमंत्रित किया गया है। बांसवाड़ा जिले में भी जिला स्वास्थ्य मानसिक कार्यक्रम की रिपोर्ट के अनुसार मानसिक रोगों से सबसे ज्यादा प्रभावित युवा है। उनकी मानसिक बीमारियों का कारण पढ़ाई,रोजगार और रिश्तों का तनाव बताया जा रहा है। ऐसे में शिक्षा और शिक्षकों की भूमिका पर विचार 🙏
संवाद
'विद्या अर्जन से विमुख विद्यार्थी मनोरोग की चपेट में'
विद्यार्जन काल में विद्यार्थी को अपना ज्ञान और कौशल बढ़ाने पर अपनी श्रम और शक्ति लगानी चाहिए। लेकिन आजकल अच्छे विद्यार्थी भी धनार्जन पर ध्यान देने लगते हैं। अपना पॉकेट मनी प्राप्त करने के चक्कर में वे जिंदगी का बहुमूल्य समय गंवा देते हैं।
ब्रह्मचर्य आश्रम अर्थात् जीवन का पहला 25 वर्ष अपने गुरु के गहन समीप में रहकर ध्यान,ज्ञान,विभिन्न प्रकार की विद्या और कला सीखने के लिए बनाया गया था। इसके पीछे मनोविज्ञान यह था कि गृहस्थ आश्रम की चुनौतियां इतनी बड़ी है कि बिना बहुत बड़ी तैयारी के वहां सफल नहीं हुआ जा सकता। व्यक्तिगत पारिवारिक जिम्मेवारी के साथ सामाजिक जिम्मेवारी को भी निभाने की चुनौती के कारण गृहस्थ आश्रम को चारों आश्रमों में सबसे कठिन आश्रम माना गया था। इसीलिए शिक्षार्जन के काल में शिष्य को अन्य सारी चिंताओं से मुक्त रखा जाता था ताकि वह पूर्ण शिक्षा प्राप्त कर सबसे कठिन आश्रम में सफल हो।
आज की शिक्षा पद्धति में शिक्षक और शिक्षार्थी के मिलन के लिए मुश्किल से 5 घंटे का समय निर्धारित होता है। गैर शैक्षिक कार्यों के बढ़ते दबाव के कारण वह भी न्यूनतम हो गया है। ऐसे में जब विद्यार्थी भी शिक्षा-संस्थान में न आने का निर्णय कर ले तो वह एक शिक्षक के रूप में उपलब्ध अपने फ्रेंड,फिलॉस्फर और गाइड को भी खो देता है क्योंकि-
'वह डालता है चांद सितारों तक को तुम्हारी झोली में
वह बोलता है बिल्कुल तुम्हारी बोली में
वह कभी मां,कभी मित्र,कभी पिता का हाथ है
साथ न रहते हुए भी ताउम्र तुम्हारे साथ है।'
मुझे याद है कि विद्यार्थी जीवन में जब भी अंधेरे घिर आते थे, उस समय परिवार से भी ज्यादा सीनियर्स और शिक्षक की सलाह ही प्रकाश प्रदान करने का काम करती थी। शिक्षा-संस्थान शिक्षक के साथ सीनियर्स और सहपाठी से भी संबंध बनाने का सबसे उत्तम स्थान होता है। ऐसे में जब विद्यार्थी शिक्षा-संस्थान से दूर हो जाए तो उसके जीवन में कई प्रकार की उलझनें और बढ़ती ही जाती है।
मेरे एक प्रतिभा संपन्न विद्यार्थी ने जब कॉलेज आना छोड़ दिया तो आश्चर्य हुआ।परीक्षा के दिन मिलने पर जब मैंने उससे कारण पूछा तो और भी घोर आश्चर्य हुआ क्योंकि वह पैसा कमाने के चक्कर में पड़ गया था। महाभारत के क्षण में अर्जुन ने तो कृष्ण के पास अपनी जिज्ञासा रखी। आज का अर्जुन तो विद्यार्जन जैसा विराट कर्म को छोड़कर धनार्जन जैसे काम में लग जाता है तथा कृष्ण से दूरी बना लेता है। कुछ हजार रुपए कमाने के चक्कर में वह अपने जीवन का सबसे बहुमूल्य समय गंवा देता है और अपने भविष्य के लिए संकट खड़ा कर लेता है। अपने सीमित ज्ञान और कौशल के कारण शिक्षक से दूर होकर वह बड़ी प्रतिभा होने के बावजूद बड़ा पद पाने से वंचित रह जाता है।
ऐसी ही एक छात्रा परीक्षा देने आई तो मैंने पूछा कि तुम्हारा नाम क्या है? उसने कहा-सारिका। मैंने पूछा कि सारिका का क्या अर्थ होता है? उसने कहा-नहीं मालूम। मैंने कहा कि जिस नाम के साथ इतने वर्ष हो गए जीवन जीते हुए,उस नाम का अर्थ भी जानने की जिज्ञासा उत्पन्न नहीं हुई ; फिर तुम जीवन का अर्थ कैसे जान पाओगी? मैंने पूछा कि कॉलेज में पढ़ने के लिए क्यों नहीं आती हो? उसने कहा कि काम करने जाती हूं जहां से कुछ हजार रुपए मिल जाते हैं। मैंने कहा कि चंद हजार रुपयों के कारण तुम कॉलेज का क्लास छोड़ देती हो ;शिक्षक, सीनियर और सहपाठी सबको छोड़ देती हो? आखिर ऐसी क्या मजबूरी है? पूछताछ करने पर पॉकेट मनी कमाने की मजबूरी का पता चला।
मैंने प्रेम से समझाया कि 'सारिका' का अर्थ होता है-मैना पंछी। पंछी को भगवान पंख देता है आकाश में उड़ने के लिए और तुम उसका उपयोग कर रही हो जमीन पर सरकने के लिए। तुम्हारा विद्यार्थी जीवन तो था अपनी प्रतिभा का बीज पूरा खिलाने के लिए और तुमने तो शिक्षक से दूरी बनाकर कली के रूप में ही उसको तोड़ दिया-
'यूं ही नहीं मिलती राही को मंजिल
एक जुनून सा दिल में जगाना पड़ता है
पूछा चिड़िया से कैसे बना आशियाना?
तो वह बोली-भरनी पड़ती है उड़ान बार-बार
तिनका तिनका उठाना पड़ता है।'
हमारे ऋषियों ने कहा था कि प्रत्येक क्षण विद्या के चिंतन में लगाओ तो विद्या मिलती है और पाई-पाई समेटो तो अर्थ संग्रह होता है-
'क्षणश:कणशश्चैव विद्यार्थं च चिंतयेत्
क्षणत्यागे कुतो विद्या,कणत्यागे कुतो धनम्।'
अफसोस है कि आज का विद्यार्थी विद्या की जगह अर्थ को समेटने में लग गया। धन महत्वपूर्ण है लेकिन विद्या की कीमत पर पढ़ने के समय में बहुत बड़े संकट काल में ही धनार्जन को आपद्धर्म के रूप में अपनाया जाना चाहिए। क्योंकि विद्याधन सबसे बड़ा धन है।
'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹